Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 527
________________ पृष्ठ | सूत्र पंक्ति १६६१२१ , अशुद्ध इसी प्रकार वैमानिक तक पृष्ठ | सूत्र पंक्ति । ७१ | ३ | इस प्रकार यावत् वैमानिक-देवों तक इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद २) | यही वक्तव्यता है। | यावत् वैमानिक-देव (वक्तव्य है। ४ एकेन्द्रिय को एकेन्द्रिय-जीवों को ३ जीव दर्शनावरणीय जीव जिस दर्शनावरणीय - सभी | वेदना वक्तव्य है। बन्धन कैसे | उसके ७ मिथ्यादर्शनक्रिया , बेच रहा है ग्राहक ४ जीवाजीवाभिगम में १३८ शीर्षक आराधनादि-पद | २ ज्ञातव्य है। ३ | उसका ५२-५३ २ | " १५२| ४ उसके ६ | जैसे-चतुःप्रदेशी ७ | है। यावत् |४, ५ | उसके ४ | इस प्रकार यावत् वैमानिक-देवों तक इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद २) ज्ञातव्य है। यावत् वैमानिक-देव (वक्तव्य है। ५ एकेन्द्रिय को एकेन्द्रिय-जीवों को ५-६ (सू. ७१ की तरह (म. ५/७१ की भांति) ३ | ऐसा करते समय वह एसा करते समय वह) ५ | यह संगत है (यह संगत है) ३ वह मृदुभाव से वह मृदु-मार्दव से शीर्षक x महाशुक्र से समागत देवों के प्रश्नों का पद महर्द्धिक यावत् महर्द्धिक (भ. ३/४) यावत् अनगार भगवान महावीर के | अनगार (भ. १/६) यावत् (भगवान् | महावीर के) आते हैं, यावत् आते हैं यावत् करते हैं। करते हैं, (वचन) | भाषा बोली भाषा भी बोली ३ | अणुयोगदाराई की भांति अणुओगवाराई (सू. ५१६-५५१) की भांति ४ आलापक है आलापक (भ. ५/६६, ६७) है, ४, ५ अविकल रूप से ज्ञातव्य है। निरवशेष ज्ञातव्य है। सर्वत्र | देव | दिव) ३ | वैमानिक देव वैमानिक-देव ४ | सम्यक्दृष्टि-उपपन्नक सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक | १६ | देव इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद २)|| यावत् वैमानिक तक (सभी वेदनाएं वक्तव्य है। बन्ध कैसे (उसके) मिथ्या-दर्शन-क्रिया बेच रहा है, ग्राहक जीवाजीवाभिगम (३/११०) में आराधनादि का पद ज्ञातव्य हैं। (उसका) (') (उसके) जैसी चतुः-प्रदेशी है यावत् (उसके) जैसा चतुः (उक्त है), वैसा ही पंच १७E वचन ' की प्ररूपणा है वैसी ही प्ररूपणा पंच६, ७ की करणीय है। | ४ क्या वह (परमाणु पुद्गल) वहां | ५ है। परमाणु-पुद्गल पर सर्वत्र | स्कन्ध (वक्तव्य है) क्या वहां वह (परमाणु-पुद्गल) है, वहां (परमाणु-पुद्गल पर) पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध |१७७/ १६४५ जाए। जाए (वक्तव्य है)। | जाए। जाए (" ") ६ की वक्तव्यता है। वही वक्तव्यता (उक्त है), उस प्रकार १० स्कन्ध की है। (स्कन्ध) वक्तव्य है। तक वही कालावधि है (तक वही कालावधि है)। आवलिका का असंख्यातवां भाग आवलिका-का-असंख्यातवां-भाग सप्रकम्प (सप्रकम्प - कालावधि है। कालावधि है)। अप्रकम्प (अप्रकम्प ' पुद्गल की यही कालावधि है। (पुद्गल की यही कालावधि है)। ५ | पुद्गल की कालावधि (पुद्गल की कालावधि) ६ तथा बादर तथा इस प्रकार बादर ६, ७ की कालावधि (की कालावधि) ३ |आवलिका के असंख्यातवें भाग आवलिका-के-असंख्यातवें-भाग १७६ | १७४ | ३ | असंख्यय काल असंख्येय काल | स्कन्ध में काल-कृत अन्तर (स्कन्ध में काल-कृत अन्तर) सप्रकम्प (सप्रकम्प - अन्तर अन्तर), ३ | आवलिका का असंख्यातवां भाग आवलिका-का-अंसंख्यातवां-भाग अप्रकम्प (अप्रकम्प |-काल है, वही काल (म. ५/१७२ में) (उक्त है), अन्तर भी वही वक्तव्य है। | आवलिका का असंख्यातवां भाग |आवलिका-का-असंख्यातवां-भाग • विशेषाधिक है? विशेषाधिक है? ३, ४ असंख्येयगुणा असंख्येय-गुणा ' विमर्शनीय है। क्षेत्र का आयु (विमर्शनीय है)। क्षेत्र (-स्थान का आयु) तीनों स्थानों (का आयु) असंख्येयगुणा है। असंख्येय-गुणा है ॥१॥ ६ | सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों सचित्त-, अचित्त- और मिश्र-द्रव्यों | इसी प्रकार स्तनिक कुमार-देवों तक इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद २) आरम्भ और परिग्रह यावत् स्तनिककुमार-देव २-जीवों की भांति ज्ञातव्य है। -जीवों (म. १८२-१८३) की भांति (वक्तव्य है। | |? नैरयिक-जीवों की भांति है? पूर्ववत् (नैरयिक -जीवों (भ. १८२ |-१८३) की भांति | २ | करते हैं, करते है (म. ५/१८३) यावत् त्रसकास का समारम्भ करते हैं, ३ द्वीन्द्रिय जीवों द्वीन्द्रिय-जीवों | इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक इस प्रकार (पूर्ति-पण्णवणा, पद आरम्म और परिग्रह की वक्तव्यता |२) यावत् चतुरिन्द्रिय-जीव १,५बीचोबीच | सर्वत्र है, परमाणु-पुद्गल बीचोंबीच है, वहां (परमाणु-पुद्गल) २ तीनों का आयु दोनों बाद सार्द्ध-समध्यादि-पद (परमाणु-पुद्गल) (द्विप्रदेशिक स्कन्ध) (संख्येयप्रदेशिक स्कन्ध) सप्रदेश है। कयचित् शीर्षक अनुत्तरोपपातिक देवों २ क्षीण हैं, उपशान्त नहीं है? ४ | वीर्य योग ४ उद्देशक में हैं यावत् | यह वक्तव्य कैसा है? ४ हूं यावत् प्ररूपणा ३ | अनुभव करते हैं? गौतम दोनों बार | १६० शीर्षक सालसमध्यादि-पद | ३ | परमाणु-पुद्गल द्वि-प्रदेशी स्कन्ध |संख्येय-प्रदेशी स्कन्य ३,४ स-प्रदेश है। कथंचित असंख्येय-प्रदेशी और स्कन्ध संख्येय-प्रदेशी अनुत्तरोपपातिक-देवों (अथवा) क्षीणहैं, (सापेक्ष रूप में) उपशान्त नहीं हैं। वीर्य-योग उद्देशक (म. १/२०१-२०६) में हैं (भ. १/४२०) यावत् | यह इस प्रकार कैसा है? हूं (म. १/४२१) यावत् प्रकपणा अनुभव करते है? गौतम है-नैरयिक असंख्येयप्रदेशिक (स्कन्ध) भी और | (स्कन्ध) भी संख्येयप्रदेशिक ७ ४ गौतम! १. परमाणु-पुद्गल एक है। जिस प्रकार गौतम! (परमाणु-पुद्गल) १. एक | है- नैरयिक ५ है, इस जिस प्रकार है, उस

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