Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 528
________________ पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १८० १८६६ ३-४ है (यह वक्तव्य है, इतना विशेष है, (इतना विशेष है ) - 22 - 2.. ..... .. १८१ १८२ १८३ १८४ ........... है)--- १६० १, २ जीवों की वक्तव्यता है उसी प्रकार जीव (उक्त हैं) उस प्रकार मनुष्य मनुष्यों के आरम्भ और परिग्रह वैमानिकों की वक्तव्यता भांति ज्ञातव्य है। में राजगृह वर्णन यावत् (भ. १/४ ) अनगार था। वह प्रकृति से भद्र २०० २०१ २०३ ... २०२ १ .............. २०६ २ १२ एक गुण वाला कृष्ण २०५६, १० अ- प्रदेश है। १२, १३ 99 २०७ २०६ २१० १ २११ २ ३ आलीन संयतेन्द्रिय १०, १२ मत में ७-११ मध्य १२ मत में # * * * * मैं १५ अ प्रदेश की वक्तव्यता है, १५, १६ दृष्टि से भी अप्रदेश की वक्तव्यता है। जो पुद्गल १७ वह है। पुद्गल १६. स- प्रदेश है। अ-प्रदेश है। २० २१ अ-प्रदेश है। जो पुद्गल २२ २२-२३ * s a m के www है-स्यात् स प्रदेश की वक्तव्यता है, १ किससे कम हैं, अल्प है, ४-६ असंख्येय- गुना है। क्षेत्र करता है। नैरयिक जीव नैरयिक जीवों वैमानिक भांति (म. ५/१८४, १८५) ज्ञातव्य हैं। में (भ. १/४-८) यावत् (राजगृह वर्णन) अनगार प्रकृति से भद्र (म. २/ १८८) यावत् ( आलीन संयतेन्द्रिय (मत में) ("") -मध्य (मत में) एक-गुण-कृष्ण वर्ण वाला पुद्गल अ-प्रदेश है, अ-प्रदेश है। जो पुद्गल (अ-प्रदेश) (उक्त है), दृष्टि से (अप्रदेश) (वक्तव्य है)। जो (पुद्गल) (वह (पुद्गल) स- प्रदेश है, अ-प्रदेश है, है वह स्यात् (स-प्रदेश) (उक्त है), (स-प्रदेश) (वक्तव्य है)। किनसे अल्प है, अल्प हैं, असंख्येय-गुणा है, क्षेत्र करता है, नैरयिक- जीव नैरयिक-जीवों १२ जैसी वक्तव्यता नैरयिक जीवों की है जैसे नैरयिक-जीव (उक्त हैं) वैसे वैसी ही वक्तव्यता यावत् वैमानिक -देवों तक की हैं। भन्ते! सिद्धों की पृच्छा ! (पूर्ति पण्णवणा, पद २) यावत् वैमानिक- देव (वक्तव्य हैं)। भन्ते! सिद्ध-पृच्छा। पृष्ठ सूत्र पंक्ति १८.४ १८५ २१२ २१३ २१४ . W ....RARA.. ... . १८६. २२२ 95 ..... २११ २ १ २२०, २२२ २२१ २१५ २१६ २१८ १२ २२५ मैं अशुद्ध सिद्ध जीव बढ़ते भी हैं, जीव अवस्थित रहते हैं। आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रकार जीव १. १२ आवलिका के असंख्यातवें भाग जघन्यतः एक २ २३५ ~ ~ - I २३६ २४२ २४३ १ 99 १ जीव एकेन्द्रिय जीवों की भांति m was as t 6223 १२ १३ १३-१४ वैसा ही है। 9 २२६ २२८-३० २ २३१ ४-५ हैं। इसकी कालावधि २ ३ १ है। 7 का वृद्धि हानि और अवस्थिति-काल (का वृद्धि हानि और अवस्थिति 201 -काल) जीव उसी प्रकार (एकेन्द्रिय जीवों की भांति) इस प्रकार (पूर्ति पण्णवणा, पद २) यावत् चतुरिन्द्रिय-जीवों तक (वृद्धि, ज्ञातव्य है)। ( अवस्थिति-काल है)। यह आवलिका का असंख्यातवां भाग है। आवलिका का अंसंख्यातवां भाग है, चतुरिन्द्रिय जीवों तक वृद्धि ज्ञातव्य है। अवस्थिति-काल है। यह २४७ १२ एक समय उत्कर्षतः जो ऊपर -सहित हैं वे सोपचय- सोपचय हैं। शेष सिद्धों की पृच्छा आवलिका के असंख्यातवें भाग ज्ञातव्य है २४४ चतुरिन्द्रिय जीवों २४५ २ चतुरिन्द्रिय जीवों २४६ आवलिका का असंख्यातवां भाग काल विरह- काल (सू. ५/२२२) की भांति में राजगृह नाम गौतम स्वामी ने इस कहलाती है, यावत् अपेक्षा से। यावत् शुद्ध सिद्ध-जीव बढ़ते हैं, ( जीव अवस्थित रहते हैं)। आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रकार (नैरयिक-जीव) आवलिका के असंख्यातवें भाग जघन्यतः (वे) एक 9 प्रकार एक समय, उत्कर्षतः जो (ऊपर) (वैसा ही है)। ( १६ ) -सहित हैं, वे | (सोपचय- सोपचय) हैं। शेष (सभी) सिद्ध-पृच्छा आवलिका के असंख्यातवें भाग हैं, ( इसकी कालावधि -) | आवलिका-का-असंख्यातवां भाग काल अवक्रांति-काल ( विरह - काल) (की भांति) २) यावत् पृथ्वीकायिक यावत् त्रीन्द्रिय जीवों पृथ्वीकायिक (पूर्ति--पण्णवणा, की वक्तव्यत नैरयिकों पद २) यावत् त्रीन्द्रिय-जीव नैरयिकों में (च. १/४-१०) यावत् (राजगृह नाम गौतम स्वामी ने इस कहलाती है यावत् अपेक्षा से (पूर्ति - पण्णवणा, पद ( म. ५ / २३६- २४० ) (ज्ञातव्य हैं) चतुरिन्द्रिय-जीवों चतुरिन्द्रिय-जीवों प्रकार (पूर्ति पण्णवणा, पद २) (वक्तव्यता)। वक्तव्यता। देवों की वक्तव्यता असुरकुमारों की देव असुरकुमारों की भांति (भ. भाँति ज्ञातव्य है। ५ / २४१, २४२) वक्तव्य हैं। पृष्ठ सूत्र पंक्ति SCE २४८ २ १८६ २५० १ १६० .... 2. . . . . . . . १९२ २५३ २५४ ७ ६३ ....... २५६ २ ३ २५७ 9 २५८ गा. २६० ८, ६ ६ १० १ २ १५ है पूर्ण वक्तव्यता | चातुर्याम पांच महाव्रत रूप mc. . २५८ २ सं. गा. ६ २ १ २ १ १६१ सं. गा. २ ४ ५. " ३ १ ܂ २ अशुद्ध ७ १ २ १ आवलिका प्रकार मनुष्य-लोक के बाहर स्थित वक्तव्यता रात-दिन उत्पन्न उत्पन्न होंगे। व्यतीत दिन व्यतीत होंगे। किस अपेक्षा से कहा उत्पन्न हुए हैं यावत् विहरण करना चातुर्याम पांच महाव्रत-रूप रहे हैं। यावत् देवलोक के कितने प्रकार प्रज्ञप्त है? देवलोक के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, कहां है कौन जानता है। लोक में होने बाले उद्देशकों के ये प्रतिपाद्य हैं। है। जो है। महावेदना क्या उद्देशकों के ये महा-वेदना उतरता है? और किस करण के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? शुद्ध आवलिका (ठा. २/३८७-३८६) प्रकार (पूर्ति पण्णवणा, पद २) ( मनुष्य-लोक के बाहर स्थित ) (वक्तव्यता) रात-दिन पूर्ववत् ( उत्पन्न उत्पन्न होंगे, व्यतीत -दिन व्यतीत होंगे।) किस अपेक्षा से (कहा उत्पन्न हुए हैं) यावत् हैं (पूर्ववत् (पूर्ण वक्तव्यता)) करण के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, नैरयिक जीवों के करण के प्रज्ञप्त है? उनके चारों चतुर्याम पंचमहाव्रतिक देवलोकों का उद्देशक में है। नगरी थी। प्रथम ज्ञातव्य है। उसमें और इसमें इतना ज्ञातव्य है, इतना विशेष है—सूर्य के विशेष सूर्य के स्थान पर स्थान पर शतक ६ रहना चतुर्याम पंचमहाव्रतिक रहे हैं (म. १/४३३) यावत् देवलोक कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? देवलोक चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, (कहां है) ( कौन जानता है ) (लोक में होने बाले) देवलोकों (का उद्देशक में है ) 11911 नगरी थी। इस शतक के प्रथम ( उद्देशकों के ये प्रतिपाद्य हैं) ||9|| है, जो है, महावेदना (क्या) महावेदना उतरता है? किस कितने प्रकार का करण प्रज्ञप्त है? चार प्रकार का करण प्रज्ञप्त है, नैरयिक- जीवों के का करण प्रज्ञप्त है? (उनके) चार

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