Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ११ : उ. १२ : सू. १९१-१९५
१९१. भंते! सौधर्मकल्प में द्रव्य वर्ण सहित, वर्ण-रहित, गंध-सहित, गंध रहित, रस-सहित, रस-रहित, स्पर्श-सहित, स्पर्श-रहित, अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्य-स्पृष्ट, अन्योन्य-बद्ध-स्पृष्ट और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं ?
हां, हैं ।
इसी प्रकार ईशान में भी, इसी प्रकार यावत् अच्युत में, इसी प्रकार ग्रैवेयक -विमानों में भी, अनुत्तर -विमानों में भी, ईषत्प्राग्भारा- पृथ्वी में भी यावत् अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं ? हां, हैं ।
१९२. वह विशालतम परिषद् यावत् जिस दिशा से आई, उसी दिशा में लौट गई।
१९३. आलभिका नगरी के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगे - देवानुप्रिय ! पुद्गल परिव्राजक ने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा की है - देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार निश्चित ही देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय-अधिक, दो-समय-अधिक यावत् असंख्येय-समय- अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं । यह अर्थ संगत नहीं है। श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं - देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय-अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय-समय-अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं । १९४. पुद्गल परिव्राजक बहुजन से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुष - समापन्न भी हो गया । शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न, कलुष-समापन्न पुद्गल परिव्राजक के वह विभंग - ज्ञान शीघ्र ही प्रतिपतित हो गया ।
१९५. पुद्गल परिव्राजक के इस आकार वाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ— श्रमण भगवान महावीर आदिकर तीर्थंकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत धर्मचक्र से शोभित यावत् शंखवन चैत्य में प्रवास - योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम - गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक होता है फिर अभिगमन, वंदन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या ? एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान फलदायक होता है फिर विपुल अर्थ-ग्रहण का कहना ही क्या ? इसलिए मैं जाऊं, श्रमण भगवान महावीर को वंदन करूं यावत् पर्युपासना करूं - यह मेरे इहभव और परभव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा - इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर जहां परिव्राजक रहते थे, वहां आया, आकर परिव्राजक गृह में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर त्रिदंड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को ग्रहण किया, ग्रहण कर परिव्राजक आवास से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर विभंग ज्ञान से प्रतिपतित
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