Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 498
________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ११ : सू. १३८-१४२ (सू. ६३) की वक्तव्यता वैसे ही व्यायामशाला और स्नानघर की वक्तव्यता यावत् चंद्रमा की भांति प्रियदर्शन नरपति जहां बाहरी उपस्थान - शाला थी, वहां आया, वहां आकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा। बैठकर स्वयं ईशान कोण में आठ भद्रासन स्थापित कराए। उन पर श्वेत वस्त्र बिछाए तथा सरसों डालकर मंगल उपचार और शांति कर्म किए । भद्रासन स्थापित कराकर अपने से न अति दूर न अति निकट, नाना मणिरत्नों से मंडित, अति प्रेक्षणीय बहुमूल्य प्रवर पत्तन में बनी हुई सूक्ष्म सैकड़ों भांतों से चित्रित भेड़िया, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर, काला हिरण, अष्टापद, याक ( चमरी गाय), हाथी, अशोकलता, पद्मलता आदि की भांतों से चित्रित भीतरी यवनिका लगाई। लगवा कर नाना मणिरत्न की भांतों से चित्रित, बिछौने और कोमल उपधानों से युक्त, धवल वस्त्र से आच्छादित, शरीर के लिए सुखद स्पर्श वाला और अतीव सुकोमल भद्रासन प्रभावती देवी के लिए स्थापित करवाया । स्थापित करवा कर कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार बोला—हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही अष्टांग महानिमित्त के सूत्र और अर्थ के धारक, विविध शास्त्रों में कुशल, स्वप्न लक्षण पाठक को बुलाओ । १३९. उन कौटुंबिक पुरुषों ने यावत् आज्ञा को स्वीकार कर बल राजा के पास से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर शीघ्र, त्वरित, चपल, चंड और वेग युक्त गति के द्वारा हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच जहां उन स्वप्न - लक्षण - पाठकों के घर थे, वहां आए, वहां आकर स्वप्न-लक्षण पाठकों को बुलाया । १४०. राजा बल के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये जाने पर वे स्वप्न - पाठक हृष्ट-तुष्ट हो गए। उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया। सभा में प्रवेशोचित मांगलिक वस्त्रों को विधिवत् पहना । अल्पभार और बहूमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। मस्तक पर दूब और श्वेत सर्षप रख अपने-अपने घर से निकले, निकल कर हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच, जहां बल राजा का प्रवर भवन-अवतंसक था, वहां आए, वहां आकर प्रवर भवन अवतंसक के मुख्य द्वार पर एक साथ मिले। मिलकर जहां बाहरी उपस्थानशाला थी, जहां बल राजा था, वहां आए, वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस-नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर, बल राजा का जय विजय की ध्वनि से वर्धापन किया । वे स्वप्न - लक्षण - पाठक बल राजा के द्वारा वंदित, पूजित, सत्कारित और सम्मानित होकर अपने-अपने लिए पूर्व स्थापित भद्रासन पर बैठ गए। १४१. बल राजा ने प्रभावती देवी को यवनिका के भीतर बिठाया । बिठाकर फूलों और फलों से भरे हुए हाथों वाले राजा बल ने परम विनयपूर्वक उन स्वप्न - लक्षण - पाठकों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! प्रभावती देवी आज उस विशिष्ट वासघर में यावत् सिंह का स्वप्न देखकर जागृत हो गई। देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याणकारी विशिष्ट फल होगा ? १४२. स्वप्न- लक्षण - पाठक राजा बल के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्टतुष्ट हो गए, उस स्वप्न का अवग्रहण किया । अवग्रहण कर ईहा में अनुप्रवेश किया। अनुप्रवेश कर ४२८

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