Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 505
________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ११ : सू. १६४-१६९ प्रकार कहा–देवानुप्रियो! क्या हस्तिनापुर नगर में इन्द्र-महोत्सव है यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं? १६५. महाबलकुमार के यह कहने पर वह कंचुकी-पुरुष हृष्टतुष्ट हो गया। उसने धर्मघोष अनगार के आगमन का निश्चय होने पर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस-नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिका कर महाबल कुमार को 'जय-विजय' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर वह इस प्रकार बोला-देवानुप्रिय! आज हस्तिनापुर नगर में न इन्द्र-महोत्सव है यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं। देवानुप्रिय! आज अर्हत् विमल के प्रशिष्य, धर्मघोष नामक अनगार हस्तिनापुर नगर के बाहर सहसाम्रवन उद्यान में प्रवास योग्यस्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं इसलिए ये बहुत उग्र, भोज यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं। १६६. महाबल कुमार ने उसी प्रकार श्रेष्ठ रथ पर बैठकर निर्गमन किया। धर्म कथा केशी स्वामी की भांति वक्तव्य है। उसने उसी प्रकार माता-पिता से पूछा, इतना विशेष है-धर्मघोष अनगार के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होना चाहता हूं। उसी प्रकार उत्तर-प्रत्युत्तर, इतना विशेष है-जात! ये तुम्हारी आठ गुण वल्लभ पत्नियां, जो विशाल कुल की बालिकाएं, कला कुशल, सर्वकाल लालित, सुख भोगने योग्य शेष (भ. ९/१७३) जमालि की भांति वक्तव्यता यावत् उसके माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक महाबल कुमार को इस प्रकार कहा जात! हम तुम्हें एक दिन के लिए राज्यश्री से संपन्न (राजा) देखना चाहते १६७. महाबल कुमार माता-पिता के वचन का अनुवर्तन करता हुआ मौन हो गया। १६८. बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, इस प्रकार शिवभद्र की भांति राज्याभिषेक वक्तव्य है, यावत् अभिसिक्त किया, दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस-नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर महाबल कुमार को 'जय विजय' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार कहा जात! बताओ, हम क्या दें? क्या वितरण करें? शेष जैसे जमालि की वक्तव्यता वैसे ही यावत्१६९. महाबल अनगार ने धर्मघोष अनगार के पास सामायिक आदि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया, अध्ययन कर चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त, अर्ध-मास और मास-क्षपण आदि विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहु प्रतिपूर्ण बारह वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन किया। पालन कर एक महीने की संलेखना से अपने आपको कृश बनाकर, अनशन के द्वारा साठ भक्त का छेदन कर, आलोचना-प्रतिक्रमण कर समाधि-पूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर, चांद, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र, तारा-रूप, बहुत योजन ऊपर, बहुत सौ, हजार, लाख, करोड़ और क्रोडाक्रोड़ योजन ऊपर, सौधर्म-, ईशान-, सनत्कुमार-, माहेन्द्र-कल्प का व्यतिक्रमण कर ब्रह्मलोककल्प में देव रूप में उपपन्न हुआ। वहां कुछ देवों की स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। वहां महाबल देव की स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। सुदर्शन! तुम ब्रह्मलोक-कल्प में दस सागरोपम काल तक दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगते हुए विहार कर उस देवलोक से आयु ४३५

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