Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 495
________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ११ : सू. १२८-१३३ है समय । असंख्येय समयां का समुदय, समिति और समागम से एक आवलिका होती है । संख्येय आवलिका का एक उच्छ्वास होता है। शालि उद्देशक (भ. ६ / १३२-१३४) की भांति वक्तव्य है यावत् इन दस क्रोड़ाक्रोड़ पल्यों से एक सागरोपम-परिमाण होता है। १२९. भंते! इन पल्योपम और सागरोपम से क्या प्रयोजन है ? सुदर्शन! इन पल्योपम सागरोपम के द्वारा नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देवों के आयुष्य का मापन होता है । १३०. भंते! नैरयिकों की कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त है ? इस प्रकार स्थिति-पद (पण्णवणा- पद ४) वक्तव्य है यावत् अजघन्य- अनुत्कृष्ट-उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है । १३१. भंते! इन पल्योपम - सागरोपम का क्षय अथवा अपचय होता है ? हां, होता है। १३२. भंते! यह किस अपेक्षा कहा जा रहा है- इन पल्योपम - सागरोपम का क्षय अथवा अपचय होता है ? सुदर्शन ! उस काल उस समय में हस्तिनापुर नाम नगर था - वर्णक । सहस्राम्रवन उद्यान - वर्णक । उस हस्तिनापुर नगर में बल नाम का राजा था - वर्णक । उस बल राजा के प्रभावती नाम की देवी थी - सुकुमाल हाथ-पैर वाली - वर्णक यावत् मनुष्य-संबंधी पंचविध काम-भोगों का प्रत्यनुभव करती हुई विहरण कर रही थी । १३३. एक दिन प्रभावती देवी उस अनुपम वासगृह, जो भीतर से चित्र - कर्म से युक्त और बाहर से धवलित था, कोमल पाषाण से घिसा होने के कारण चिकना था । उसका ऊपरी भाग विविध चित्रों से युक्त तथा अधोभाग प्रकाश से दीप्तिमान था । मणि और रत्न की प्रभा से अंधकार प्रणष्ट हो चुका था । उसका देश-भाग बहुत सम और सुविभक्त था। पांच वर्ण के सरस और सुरभित मुक्त पुष्प, पुञ्ज के उपचार से कलित, कृष्ण अगर, प्रवर कुन्दुरु और जलते हुए लोबान की धूप से उठती हुई सुगंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंध-वर्तिका के समान उस प्रासाद में एक विशिष्ट शयनीय था - उस पर शरीर प्रमाण उपधान (मसनद) रखा हुआ था, शिर और पांवों की ओर शरीर प्रमाण उपधान रखे हुए इसलिए वह दोनों ओर से उभरा हुआ तथा मध्य में नत और गंभीर था । गंगा तट की बालुका की भांति पांव रखते ही नीचे धंस जाता था । वह परिकर्मित क्षौम दुकूल पट्ट से ढका हुआ था । उसका रजस्त्राण (चादरा) सुनिर्मित था, वह लाल रंग की मसहरी से सुरम्य था, उसका स्पर्श चर्म वस्त्र, कपास, बूर वनस्पति और नवनीत के समान (मृदु) था। प्रवर सुगंधित कुसुम चूर्ण के शयन-उपचार से कलित था। उस शयनीय पर अर्द्ध रात्रि के समय सुप्त - जाग्रत (अर्धनिद्रा) अवस्था में बार बार झपकी लेती हुई प्रभावती देवी इस प्रकार का उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगल और श्री संपन्न महास्वप्न देखकर जागृत हो गई। वह हार रजत, क्षीर-सागर, चंद्र-किरण, जल- कण, रजत- महाशैल (वैताढ्य) के समान अतिशुक्ल, रमणीय और दर्शनीय था । उसका प्रकोष्ठ अप्रकंप और मनोज्ञ था। वह गोल, ४२५

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