Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३३ : सू. १५५-१५८ मासक्षपण-इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करती है। पालन कर एक मास की संलेखना से अपने शरीर को कृश बना, अनशन के द्वारा साठ भक्त का छेदन करती है। छेदन कर चरम उच्छ्वास-निःश्वास में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाली हो जाती
जमालि-पद १५६. ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के पश्चिम भाग में क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था–वर्णक। उस
क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में जमालि नामक क्षत्रियकुमार रहता है-वह सम्पन्न, दीप्तिमान यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय है। वह अपने प्रवर प्रासाद के उपरिभाग में स्थित है। उसके सामने मृदंग-मस्तकों की प्रबल होती हुई ध्वनि के साथ वर तरुणियों द्वारा संप्रयुक्त बत्तीस प्रकार के नाटक किए जा रहे हैं। उसके लिए नृत्य किया जा रहा है, इसलिए वह उपनृत्यमान है। उसके गुणगान किए जा रहे हैं, उपलालन किया जा रहा है। प्रावृड्, वर्षा-रात्र, शीत, हेमन्त, बसन्त और ग्रीष्म पर्यंत छहों ऋतुओं के विविध अनुभाव का अनुभव करता हुआ, उनका अंति संचरण करता हुआ, इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध-इस पंचविध मनुष्य संबंधी काम-भोग को भोगता हुआ विहार कर रहा है। १५७. क्षत्रियकुंडग्राम नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर महान् जन-शब्द , जन-व्यूह, जन-बोल, जन-कलकल, जन-उर्मि, जन-उत्कलिका, जन-सन्निपात, बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रियो! श्रमण भगवान महावीर धर्मतीर्थ के आदिकर्ता यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशालक चैत्य में प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। देवानुप्रियो! ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम-गोत्र का श्रवण भी महान् फलदायक है, (उववाई, सूत्र ५२) की भांति वक्तव्य है, यावत् एक दिशा के अभिमुख क्षत्रियकुंडग्राम नगर के ठीक मध्य से निकलते हैं, निकलकर जहां ब्राह्मणकुंडग्राम नगर है, जहां बहशालक चैत्य है, वहां आते हैं। इस प्रकार उववाई की भांति वक्तव्य है यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना कर रहे हैं। १५८. क्षत्रियकुमार जमालि उस महान् जन-शब्द यावत् जन-सन्निपात को सुन रहा है, देख रहा
है। उसके इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ क्या आज क्षत्रियकुंडग्राम नगर में इन्द्र-महोत्सव है? स्कंद-महोत्सव है? मुकुन्द-महोत्सव है? नाग-महोत्सव है? यक्ष-महोत्सव है? भूत-महोत्सव है? कूप-महोत्सव है? तालाब-महोत्सव है? नदी-महोत्सव है? द्रह-महोत्सव है? पर्वत-महोत्सव है? वृक्ष-महोत्सव है? चैत्य-महोत्सव है? स्तूप-महोत्सव है? जिससे कि ये बहुत उग्र, भोज, राजन्य, इक्ष्वाकु, नाग, कौरव, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, भट, भटपुत्र, योद्धा, प्रशासक, मल्लवी, लिच्छवी, लिच्छविपुत्र तथा अन्य अनेक राजे, युवराज, कोटवाल, मडंबपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि स्नात होकर, बलिकर्म कर (उववाई, सूत्र ५२) की
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