Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३३ : सू. १६३-१६६
हुए थे। भगवान महावीर का बल ओघबल, अतिबल और महाबल - इन तीन रूपों में प्रकट हो रहा था। वे अपरिमित बल, वीर्य, तेज, माहात्म्य और कांति से युक्त थे। उनका स्वर शरद ऋतु के मेघ के नवगर्जन, क्रोञ्च के निर्घोष तथा दुन्दुभिः की ध्वनि के समान मधुर और गंभीर था। धर्म - कथन के समय महावीर की वाणी वक्ष में विस्तृत, कंठ में वर्तुल और सिर में संकीर्ण होती थी। वह गुनगुनाहट और अस्पष्टता से रहित थी । उसमें अक्षर का सन्निपात स्पष्ट था। वह स्वरकला से पूर्ण और गेय राग से अनुरक्त थी । वह सर्वभाषानुगामिनी - स्वतः ही सब भाषाओं में अनूदित हो जाती थी। भगवान एक योजन तक सुनाई देने वाले स्वर में अर्द्धमागधी भाषा में बोले । प्रवचन के पश्चात् परिषद् लौट गई।
१६४. वह क्षत्रियकुमार जमालि श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट चित्तवाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मनवाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया । वह उठने की मुद्रा में उठता है । उठ कर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदन - - नमस्कार करता है, वंदन - नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला- भंते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा करता हूं । भंते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में प्रतीति करता हूं, भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में रुचि करता हूं, भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में अभ्युत्थान करता हूं । भंते! यह ऐसा ही है ! भंते! यह तथा (संवादिता - पूर्ण) है। भंते! यह अवितथ है । भंते! यह असंदिग्ध है। भंते! यह इष्ट है । भंते! यह प्रतीप्सित ( प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। भंते! यह इष्ट-प्रतीप्सित है । जैसे आप कह रहे हैं, इतना विशेष है - देवानुप्रिय ! मैं माता-पिता से पूछ लेता हूं, तत्पश्चात् मैं देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होऊंगा ।
देवानुप्रिय ! जैसे सुख हो, प्रतिबंध मत करो ।
१६५. क्षत्रियकुमार जमालि श्रमण भगवान महावीर के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हो गया । वह श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदन - नमस्कार करता है, वंदन - नमस्कार कर वह उसी चार घण्टाओं वाले अश्व रथ पर आरूढ़ होता है। आरूढ़ होकर श्रमण भगवान महावीर के पास से बहुशालक चैत्य से निर्गमन करता है। निर्गमन कर कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण करता है । महान् सुभटों के सुविस्तृत संघात वृन्द से परिक्षिप्त होकर जहां क्षत्रियकुण्डग्राम नगर है, वहां आता है। वहां आकर क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बीचो-बीच जहां अपना घर है, जहां बाहर उपस्थानशाला है, वहां आता है, वहां आकर घोड़ों की लगाम को खींचता है, खींचकर रथ को ठहराता है, ठहराकर रथ से उतरता है, उतरकर जहां आभ्यंतर उपस्थानशाला है, जहां माता-पिता हैं, वहां आता है, वहां आकर जय हो विजय हो, इस प्रकार (माता पिता का) वर्धापन करता है, वर्धापन कर इस प्रकार बोला - माता - पिता! मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुना है । वही धर्म मुझे इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित
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१६६. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि को इस प्रकार कहा - पुत्र ! तुम धन्य हो, पुत्र ! तुम कृतार्थ हो, पुत्र ! तुम कृतपुण्य ( भाग्यशाली) हो, पुत्र ! तुम कृतलक्षण ( लक्षण सम्पन्न ) हो ।
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