Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३३ : सू. २०८-२११ हे नंद पुरुष ! तुम्हारी जय हो, विजय हो, भद्र हो अभग्न उत्तम ज्ञान दर्शन - चारित्र के द्वारा । इन्द्रियां अजित हैं, उन्हें जीतो । श्रमण-धर्म जित है, उसकी पालना करो। हे देव! विघ्नों को जीतकर सिद्धि - मध्य में निवास करो। धृति का सुदृढ़ कच्छा बांधकर तप के द्वारा राग-द्वेष रूपी मल्लों को निहत करो । उत्तम शुक्लध्यान के द्वारा अष्टकर्म रूपी शुत्रओं का मर्दन करो। हे धीर! इस त्रिलोकी के रंग मध्य में अप्रमत्त होकर आराधना-पताका को हाथ में थामो । तम-रहित अनुत्तर केवलज्ञान को प्राप्त करो ।
जिनवर उपदिष्ट ऋजु सिद्धिमार्ग के द्वारा, परीषह सेना को हत-प्रहत कर, इन्द्रिय-समूह के कंटक बने हुए उपसर्गों को अभिभूत कर परम मोक्ष पद को प्राप्त करो। तुम्हारी धर्म की आराधना विघ्न-रहित हो। इस प्रकार जन-समूह क्षत्रियकुमार जमालि का अभिनंदन और अभिस्तवन कर रहा था ।
२०९. क्षत्रियकुमार जमालि हजारों नयन - मालाओं से देखा जाता हुआ, देखा जाता हुआ, हजारों हृदय- मालाओं से अभिनंदित होता हुआ, अभिनंदित होता हुआ, हजारों मनोरथ-मालाओं से स्पृष्ट होता हुआ, स्पृष्ट होता हुआ, हजारों वचन - मालाओं से अभिस्तवन लेता हुआ, अभिस्तवन लेता हुआ, बहुत हजारों नर-नारियों की हजारों अंजलि-मालाओं को दाएं हाथ से स्वीकार करता हुआ, स्वीकार करता हुआ, मंजु-मंजु घोष से नमस्कार करने वाले जनों की स्थिति को पूछते हुए, पूछते हुए, हजारों गृहपंक्तियों को अतिक्रांत करता हुआ, अतिक्रांत करता हुआ, क्षत्रियकुंडग्राम नगर के बीचोंबीच निर्गमन कर रहा था । निर्गमन कर जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर है, जहां बहुशालक चैत्य है, वहां आया। वहां आकर छत्र आदि तीर्थंकर के अतिशयों को देखा। देखकर हजारों पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका को ठहराया । हजार पुरुष द्वारा वहन की जाने वाली शिविका से उतरा ।
२१०. माता-पिता क्षत्रियकुमार जमालि को आगे कर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदन - नमस्कार किया । वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार बोले- भंते! क्षत्रियकुमार जमालि हमारा एक पुत्र है, इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक समान है । रत्न, रत्नभूत (चिन्तामणि आदि रत्न के समान), जीवन उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाला है। वह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण-दुर्लभ है फिर दर्शन का तो कहना ही क्या ? जैसे उत्पल, पद्म यावत् सहस्रपत्र-कमल पंक में उत्पन्न और जल में संवर्द्धित होता है किन्तु वह पंक - रज और जल-रज से उपलिप्त नहीं होता वैसे ही क्षत्रियकुमार जमालि कामों से उत्पन्न हुआ है, भोगों में संवर्द्धित हुआ है किन्तु वह काम - रज और भोग-रज से उपलिप्त नहीं है । मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन-संबंधी और परिजन से उपलिप्त नहीं है । देवानुप्रिय ! यह संसार भय से उद्विग्न है, जन्म-मरण से भीत है, देवानुप्रिय के पास मुण्ड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रर्जित होना चाहता है, इसलिए हम इसे देवानुप्रिय को शिष्य की भिक्षा के रूप में देना चाहते हैं । देवानुप्रिय ! शिष्य की भिक्षा को स्वीकार करो ।
२११. श्रमण भगवान महावीर ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो, प्रतिबंध मत करो ।
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