Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 451
________________ भगवती सूत्र श. ९ : उ. ३३ : सू. २१५-२२५ प्रव्रजित किया यावत् क्षत्रियकुमार जमालि ने सामायिक, आचारांग आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, अध्ययन कर अनेक चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम - भक्त, द्वादश-भक्त, अर्धमास और मास - खमण - इस प्रकार विचित्र तपः कर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण किया । २१६. जमालि अनगार किसी समय जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते ! तुम्हारी अनुज्ञा से मैं पांच सौ अनगारों के साथ बाहर जनपद विहार करना चाहता हूं । २१७. श्रमण भगवान महावीर ने जमालि अनगार के इस अर्थ को आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मौन रहे । २१८. जमालि अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा - भंते! मैं तुम्हारी अनुज्ञा से पांच सौ अनगारों के साथ बाहर जनपद - विहार करना चाहता हूं। २१९. श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार के इस कथन को दूसरी और तीसरी बार भी आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मौन रहे । २२०. जमालि अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन - नमस्कार किया । वंदन - नमस्कार कर श्रमण भगवान महावीर के पास से बहुशालक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया । प्रतिनिष्क्रमण कर पांच सौ अनगारों के साथ बाहर जनपद - विहार करने लगा । २२१. उस काल और उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी-वर्णक । कोष्ठक चैत्य - वर्णक यावत् वनखण्ड तक। उस काल और उस समय में चंपा नामक नगरी थी - वर्णक । पूर्णभद्र चैत्य - वर्णक यावत् पृथ्वीशिला-पट्टक । २२२. जमालि अनगार किसी समय पांच सौ अनगारों के साथ संपरिवृत होकर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन करते हुए जहां श्रावस्ती नगरी थी, जहां कोष्ठक चैत्य था, वहां आया। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली, अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहा था । २२३. श्रमण भगवान महावीर किसी समय क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां चंपानगरी थी, जहां पूर्णभद्र चैत्य था, वहां आए। आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली, अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे। २२४. उस जमालि अनगार के अरस, विरस, अंत, प्रांत, रूक्ष, तुच्छ, कालातिक्रांत, प्रमाणातिक्रांत, पान-भोजन से किसी समय शरीर में विपुल रोग- आतंक प्रकट हुआ - उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःखद, कष्टसाध्य, तीव्र और दुःसह । उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और उसमें जलन पैदा हो गयी । २२५. जमालि अनगार ने वेदना से अभिभूत होकर श्रमण-निर्ग्रथों को संबोधित किया । संबोधित कर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! तुम मरे शय्या संस्तारक बिछा दो । ३८१

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