Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३३ : सू. १७०-१७३
संध्या के अभ्रराग के समान, जल - बुबुद के समान, कुश की नोक पर टिकी हुई जलबिंदु के समान, स्वप्न-दर्शन के समान और विद्युल्लता की भांति चंचल और अनित्य है, सड़न, पतन और विध्वंसधर्मा है । पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। माता-पिता! कौन जानता है कौन पहले जाएगा? कौन पश्चात् जाएगा ? माता-पिता ! इसलिए मैं चाहता हूं तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं ।
१७१. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा - जात ! तुम्हारा यह शरीर प्रविशिष्ट रूप, लक्षण, व्यंजन और गुण से उपेत, उत्तम बल, वीर्य और सत्व से युक्त, विज्ञान से विचक्षण, सौभाग्य- सहित गुण से उन्नत, अभिजात और महान् क्षमता वाला, विविध व्याधि और रोग से रहित, उपपात रहित, उदात्त, मनोहर और पटु पांच इन्द्रियों से युक्त, प्रथम यौवन में स्थित और अनेक गुणों से संयुक्त है, इसलिए हे जात! तुम अपने शरीर के रूप, सौभाग्य और यौवन- गुणों का अनुभव करो। उसके पश्चात् - अपने शरीर के रूप, सौभाग्य और यौवन गुणों का अनुभव करने के पश्चात् हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी अवस्था परिपक्व हो जाए, कुलवंश के तंतु से निरपेक्ष हो जाओ तब तुम श्रमण भगवान महावीर के पास मुंड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना ।
१७२. क्षत्रियकुमार जमालि माता-पिता से इस प्रकार बोला-माता-पिता ! यह वैसा ही है, जो तुम मुझे कह रहे हो - जात ! तुम्हारा यह शरीर प्रविशिष्ट रूप वाला है यावत् अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता ! यह मनुष्य का शरीर दुःख का आयतन है, विविध प्रकार की सैकड़ों व्याधियों का संनिकेत (घर) है। अस्थिरूपी काठ के ढांचे पर खड़ा हुआ है, शिरा और स्नायुओं के जाल से अतिवेष्टित है, मिट्टी पात्र के समान दुर्बल है, अशुचि से संक्लिष्ट है, जिसका कृत्यकार्य सर्वकाल चलता है, कभी पूरा नहीं होता, बुढ़ापे से निष्प्राण बना हुआ जर्जर घर सड़न, पतन और विध्वंसधर्मा है, पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। माता-पिता ! कौन पहले जाएगा? कौन पश्चात् जाएगा ? माता-पिता ! इसलिए मैं चाहता हूं तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात हो कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं ।
१७३. क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता ने इस प्रकार कहा - जात! ये तुम्हारी आठ गुणवल्लभ पत्नियां, जो विशाल कुल की बालिकाएं, कलाकुशल, सर्वकाल- लालित, सुख भोगने योग्य, मार्दव - गुण से युक्त, निपुण, विनय के उपचार में पण्डित और विचक्षण, मनोरम, मित और मधुर बोलने वाली, विहसन, विप्रेक्षण ( कटाक्ष), गति, विलास और चेष्टा में विशारद, समृद्ध कुल वाली और शीलशालिनी, विशुद्ध, कुलवंश की संतान रूपी तंतु की वृद्धि के लिए गर्भ के उद्भव में समर्थ, मनोनुकूल और हृदय से इष्ट, उत्तम और नित्य भाव से अनुरक्त सर्वांग सुंदरियां हैं, इसलिए जात! तुम इनके साथ विपुल मनुष्य-संबंधी काम-भोगों का भोग करो। उसके पश्चात् भुक्तभोगी तथा विषयों के प्रति तुम्हारा कौतुहल विगत और व्युच्छिन्न हो जाए, हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी अवस्था परिपक्व हो जाए, तुम कुलवंश के तंतु कार्य से निरपेक्ष हो जाओ तब तुम श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो
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