Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३३ : सू. १४८-१५० धारा से आहत कदम्ब पुष्प की भांति रोमकूप उच्छ्वसित हो गए। वह मुझे अनिमेष दृष्टि से
देख रही है। १४९. श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानंदा ब्राह्मणी को उस विशाल परिषद् में धर्म का प्रतिबोध दिया, जिस परिषद् में ऋषि-परिषद्, मुनि-परिषद्, यति-परिषद्
और देव-परिषद् का समावेश है। उन परिषदों में सैकड़ों-सैकड़ों मनुष्यों के समूह बैठे हुए थे। भगवान महावीर का बल ओघबल, अतिबल और महाबल--इन तीन रूपों में प्रकट हो रहा था। वे अपरिमित बल, वीर्य, तेज, माहात्म्य और कांति से युक्त थे। उनका स्वर शरद ऋतु के मेघ के नव गर्जन, क्रोंच के निर्घोष तथा दुंदुभि की ध्वनि के समान मधुर और गंभीर था। धर्म-कथन के समय भगवान की वाणी वक्ष में विस्तृत, कंठ में वर्तुल और सिर में संकीर्ण होती थी। वह गनगनाहट और अस्पष्टता से रहित थी। उसमें अक्षर का सन्निपात स्पष्ट था। वह स्वर-कला से पूर्ण और ज्ञेय राग से अनुरक्त थी। वह सर्व भाषानुगामिनी-स्वतः ही सब भाषाओं में अनुदित हो जाती थी। भगवान एक योजन तक सुनाई देने वाले स्वर में
अर्द्धमागधी भाषा में बोले। प्रवचन के पश्चात् परिषद् लौट गई। १५०. ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट होकर उठने की मुद्रा में उठता है, उठकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-भंते ! यह ऐसा ही है, भंते ! यह तथा (संवादितापूर्ण) है, भंते ! यह अवितथ है, भंते! यह असंदिग्ध है, भंते! यह इष्ट है, भंते! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है और भंते! यह इष्टप्रतीप्सित हैजैसा आप कह रहे हैं ऐसा भाव प्रदर्शित कर वह उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) की ओर जाता है, जाकर स्वयं ही आभरण अलंकार उतारता है, उतार कर स्वयं ही पंचमुष्टि लोच करता है, लोच कर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आता है, आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-भंते! यह लोक बुढ़ापे
और मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है)। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त-प्रदीप्त हो रहा है। जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग जाने पर वह वहां जो अल्पभार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाता है। (और सोचता है) अग्नि से निकाला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। देवानुप्रिय! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक उपकरण है। वह इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के समान है। इसे सर्दी-गर्मी न लगे, भूख-प्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, हिंस्र पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश और मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात-जनित विविध प्रकार
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