Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३३ : सू. १३९-१४४ धर्मचक्र से शोभित यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए बहुशालक चैत्य में प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। देवानुप्रिये! ऐसे अर्हत्-भगवानों के नाम-गोत्र का श्रवण भी महान् फलदायक है फिर अभिगमन, वंदन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या? एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान् फलदायक है फिर विपुल अर्थ-ग्रहण का कहना ही क्या? इसलिए देवानुप्रिये! हम चलें, श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार करें, सत्कार-सम्मान करें, भगवान कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले हैं। हम उनकी पर्युपासना करें। यह हमारे इहभव और परभव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और
आनुगामिकता के लिए होगा। १४०. देवानंदा ब्राह्मणी ऋषभदत्त ब्राह्मण के यह कहने पर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गई। वह दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर ऋषभदत्त ब्राह्मण के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार करती
१४१. ऋषभदत्त ब्राह्मण ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा
देवानुप्रियो! शीघ्र गति-क्रिया की दक्षता से युक्त, समान खुर और पूंछ वाले, समान रूप से उल्लिखित सींग वाले, स्वर्णमय कलाप से युक्त, प्रतिविशिष्ट-प्रधान रजतमय घण्टा वाले, धागे की डोरी तथा प्रवर कंचनमय नथिनी की डोरी से बंधे हुए, नील उत्पल के सेहरे वाले, प्रवर तरुण बैल जिसमें जोते गए हैं, जिस पर नाना मणि, रत्न और घंटिका जाल वाली झूल डाली हुई है, श्रेष्ठ काठ की जुआ और जोत (जूए को बैल की गर्दन से जोतने वाली रस्सी) रज्जुयुग्म प्रशस्त, सुविरचित और निर्मित है, प्रवर लक्षण से उपेत है वैसे धार्मिक यानप्रवर को
तैयार कर शीघ्र उपस्थित करो। उपस्थित कर मेरी इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। १४२. वे कौटुम्बिक पुरुष ऋषभदत्त ब्राह्मण के यह कहने पर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाले, परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले हो गए। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर 'स्वामी! आपकी आज्ञा के अनुसार ऐसा ही होगा', यह कहकर विनयपूर्वक वचन को स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर शीघ्र गतिक्रिया की दक्षता से युक्त यावत् धार्मिक यानप्रवर को शीघ्र उपस्थित कर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित करते हैं। १४३. ऋषभदत्त ब्राह्मण ने स्नान यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को
अलंकृत किया। (इस प्रकार सज्जित होकर) अपने घर से निकले, घर से निकलकर जहां बाहरी उपस्थानशाला है, जहां धार्मिक यानप्रवर है वहां आए। वहां आ कर धार्मिक यानप्रवर
पर आरूढ़ हो गए। १४४. देवानंदा ब्राह्मणी ने स्नान यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को
अलंकृत किया। बहुत कुब्जा, किरात देशवासिनी यावत् चेटिका-समूह,. वर्षधर (कृत
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