Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३२ : सू. १२६-१३३ गांगेय! कर्म के उदय, कर्म की गुरुता, कर्म की भारिकता, कर्म की गुरुसंभारिकता, अशुभ कर्म के उदय, अशुभ कर्म के विपाक और अशुभ कर्म के फल-विपाक से नैरयिक नैरयिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं, नैरयिक नैरयिकों में परतः उपपन्न नहीं होते। गांगेय ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है नैरयिक नैरयिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं, नैरयिक नैरयिकों में परतः उपपन्न नहीं होते। १२७. भंते! असुरकुमार असुरकुमारों में स्वतः उपपन्न होते हैं? पृच्छा।
गांगेय! असुरकुमार असुरकुमारों में स्वतः उपपन्न होते हैं, असुरकुमार असुरकुमारों में परतः
उपपन्न नहीं होते। १२८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-असुरकुमार असुरकुमारों में स्वतः उपपन्न होते हैं, असुरकुमार असुरकुमारों में परतः उपपन्न नहीं होते? गांगेय! कर्म के उदय, कर्म के विगमन, कर्म-विशोधि, कर्म-विशुद्धि, शुभ कर्म के उदय, शुभ कर्म के विपाक और शुभ कर्म के फल-विपाक से असुरकुमार असुरकुमार के रूप में स्वतः उपपन्न होते हैं, असुरकुमार असुरकुमार के रूप में परतः उपपन्न नहीं होते। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-असुरकुमार असुरकुमार के रूप में स्वतः उपपन्न होते हैं, असुरकुमार
असुरकुमार के रूप में परतः उपपन्न नहीं होते। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार। १२९. भंते! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं?-पृच्छा गांगेय! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं, पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में
परत उत्पन्न नहीं होते। १३०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं, पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में परतः उत्पन्न नहीं होते? गांगेय! कर्म के उदय, कर्म की गुरुता, कर्म की भारिकता, कर्म की गुरु-संभारिकता, शुभाशुभ कर्म के उदय, शुभाशुभ कर्म के विपाक और शुभाशुभ कर्म के फल-विपाक से पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं, पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में परतः उत्पन्न नहीं होते। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी-कायिक पृथ्वीकायिक में परतः उत्पन्न नहीं होते। १३१. इस प्रकार यावत् मनुष्य। १३२. वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं। गांगेय ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है वैमानिक वैमानिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं,
वैमानिक वैमानिकों में परतः उपपन्न नहीं होते। गांगेय का संबोधि-पद १३३. उसके पश्चात् गांगेय अनगार को यह प्रत्यभिज्ञा होती है-श्रमण भगवान् महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं। अब वह गांगेय अनगार श्रमण भगवान् महावीर को दाईं ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वंदन-नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर उसने इस प्रकार कहा-भंते!
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