Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ८ : उ. ९ : सू. ३८१-३८५ ३८१. पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर के बंध के अन्तर की पृच्छा। सर्व-बंध का अन्तर एकेन्द्रिय की भांति वक्तव्य है। देश-बंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः तीन समय है। जैसे पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय की वक्तव्यता है, वैसे वायुकाय-वर्जित यावत् चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है-सर्व-बंध का अंतर उत्कृष्टतः जिसकी जितनी स्थिति निर्दिष्ट है, उसमें एक समय अधिक कर देना चाहिए। वायुकायिक के सर्व-बंध का अंतर जघन्यतः तीन-समय-न्यून-क्षुल्लक-भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः एक-समय-अधिक-तीन-हजार-वर्ष है। देश-बंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः अंतर्मुहूर्त है। ३८२. पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-औदारिक-शरीर के बंध के अन्तर की पृच्छा। पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-औदारिक-शरीर के सर्व-बंध का अंतर जघन्यतः तीन-समय-न्यून-क्षुल्लक-भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः एक-समय-अधिक-पूर्व-कोटि है। देश-बंध का अंतर एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर की भांति पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-औदारिक-शरीर का वक्तव्य है। इस प्रकार मनुष्यों का भी निरवशेष रूप में वक्तव्य है यावत् उत्कृष्टतः अंतर्मुहूर्त है। ३८३. भंते! एकेन्द्रिय-जीव नोएकेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय आदि) में जन्म लेकर पुनः एकेन्द्रिय में जन्म
लेता है, उस अवस्था में एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर-प्रयोग के बंध का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का है? गौतम! सर्व-बंध का अंतर जघन्यतः तीन-समय-न्यून-दो-क्षुल्लक-भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः संख्येय-वर्ष-अधिक-दो-हजार सागरोपम है। देश-बंध का अंतर जघन्यतः एक-समय-अधिक-क्षुल्लक-भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः संख्येय-वर्ष-अधिक-दो-हजार-सागरोपम है। ३८४. भंते! पृथ्वीकायिक-जीव नो-पृथ्वीकायिक में जन्म लेकर पुनः पृथ्वीकायिक में जन्म
लेता है। उस अवस्था में पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर-प्रयोग के बंध का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का है? गौतम! सर्व-बंध का अंतर जघन्यतः तीन-समय-न्यून-दो-क्षुल्लक-भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः अनंत काल-अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा अनंत लोक-असंख्येय पुद्गल-परिवर्त, वे पुद्गल-परिवर्त आवलिका-के-असंख्यातवें-भाग जितने हैं। देश-बंध का अंतर जघन्यतः एक-समय-अधिक-क्षुल्लक-भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः अनंत काल यावत् आवलिका-के-असंख्यातवें-भाग जितने हैं। जैसे–पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय की वक्तव्यता है, वैसे वनस्पतिकायिक-वर्जित यावत् मनुष्य की वक्तव्यता। वनस्पतिकायिक के सर्व-बंध का अंतर जघन्यतः तीन-समय-न्यून-दो-क्षुल्लक-भव-ग्रहण पूर्ववत् है, उत्कृष्टतः असंख्येय काल-असंख्येय अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येय लोक, इसी प्रकार देश-बंध का अंतर जघन्यतः एक-समय-अधिक-क्षुल्लक-भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः पृथ्वी-काल-असंख्येय अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की
अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येय लोक । ३८५. भंते! इन औदारिक-शरीर के देश-बंधक, सर्व-बंधक और अबंधक जीवों में कौन किनसे
अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं?
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