Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ९ : उ. ३१ : सू. ५०-५५ अधोदेश में होता है गड्डे में भी होता है, कंदरा में भी होता है। संहरण की अपेक्षा पाताल में भी होता है, भवन में भी होता है। तिर्यग्-लोक में होता है-पंद्रह कर्मभूमि में होता है। संहरण की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप-समुद्र के
एक देश भाग में होता है। ५१. भंते! अश्रुत्वा-केवलज्ञानी एक समय में कितने होते हैं? गौतम! जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः दस। गौतम ! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना कोई पुरुष केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता यावत् केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना कोई पुरुष केवलज्ञान उत्पन्न कर
सकता है और कोई नहीं कर सकता। श्रुत्वा-उपलब्धि-पद ५२. भंते! कोई पुरुष केवली, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपासिका, तत्पाक्षिक, तत्पाक्षिक के श्रावक, तत्पाक्षिक की श्राविका, तत्पाक्षिक के उपासक, तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है? गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। ५३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कोई पुरुष सुनकर केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता? गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुन कर केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जिसके ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, वह केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कोई पुरुष सुनकर केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं
कर सकता। ५४. इस प्रकार जो अश्रुत्वा-पुरुष की वक्तव्यता है, वही श्रुत्वा-पुरुष की वक्तव्यता है, इतना विशेष है-असोच्चा के स्थान पर सोच्चा का अभिलाप (पाठोच्चारण) है, शेष वही पूर्णरूप से वक्तव्य है यावत् जिसके मनःपर्यव-ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम होता है, जिसके केवल-ज्ञानावरण का क्षय होता है, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है
यावत् केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है। ५५. जो निरन्तर तेले-तेले के तप (तीन-तीन दिन के उपवास) की साधना के द्वारा आत्मा को
भावित करता है, उसके प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया
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