Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
श. ९ : उ. ३१ : सू. ३१,३३
भगवती सूत्र और कोई नहीं कर सकता। ९. कोई पुरुष केवल अवधि-ज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। १०. कोई पुरुष केवल मनःपर्यव-ज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। ११. कोई पुरुष केवल-ज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। ३२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कोई पुरुष सुने बिना केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता यावत् कोई पुरुष केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता? गौतम! १. जिसके ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता २. जिसके दर्शनावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ३. जिसके धर्मान्तराय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ४. जिसके चरित्रावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ५. जिसके यतनावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ६. जिसके अध्यवसानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ७. जिसके आभिनिबोधिक-ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ८. जिसके श्रत-ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ९. जिसके अवधि-ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता १०. जिसके मनःपर्यव-ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ११. जिसके केवल-ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षय नहीं होता, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त नहीं कर सकता यावत् केवल-ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता। १. जिसके ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम होता है २. जिसके दर्शनावरणीय-कर्म का क्षयोपशम होता है ३. जिसके धर्मान्तराय-कर्म का क्षयोपशम होता है इस प्रकार यावत् जिसके केवल-ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षय होता है वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना १. केवलि-प्रज्ञप्त-धर्म को प्राप्त कर सकता है २. केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है यावत् ११. केवल-ज्ञान उत्पन्न कर सकता है। ३३. जो निरन्तर बेले-बेले (दो-दो दिन का उपवास) के तप की साधना करता है, जो दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन-भूमि में आतापना लेता है, उसके प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदु-मार्दव सम्पन्नता, आत्मलीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और लेश्या की उत्तरोतर होने वाली विशुद्धि से तदावरणीय (विभंग-ज्ञानावरणीय) कर्म का क्षयोपशम होता है। उसे ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। वह पुरुष समुत्पन्न विभंग-ज्ञान के द्वारा जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः असंख्येय हजार योजन को जानता-देखता है। वह समुत्पन्न विभंग-ज्ञान के द्वारा जीव को भी जानता है, अजीव को भी जानता है। वे पाषंडस्थ (अन्य सम्प्रदाय में स्थित व्रती) आरंभ-सहित और परिग्रह-सहित होने के कारण संक्लिश्यमान है, इसे जानता है तथा आरंभ और परिग्रह को छोड़कर वे विशुद्धयमान होते हैं, इसे भी जानता है। वह विभंग-ज्ञानी जीव-अजीव आदि के यथार्थ स्वरूप के प्रति समर्पित होकर पहले सम्यक्त्व को प्रतिपन्न होता है। सम्यक्त्व को प्रतिपन्न होकर श्रमण-धर्म में रुचि करता है। श्रमण-धर्म में रुचि कर चारित्र को प्रतिपन्न होता है। चारित्र को प्रतिपन्न होकर लिंग को
३४०