Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
भगवती सूत्र
श. ३ : उ. १ : सू. ३३-३६
भोजन, पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों से तथा वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकारों सत्कृत- सम्मानित करता है। फिर उन्हीं मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बी-जनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करता है, स्थापित कर वह उन मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बी-जनों, स्वजनों, संबंधियों, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र की अनुमति लेता है। अनुमति ले कर मुण्ड हो कर प्राणामा प्रव्रज्या से प्रव्रजित हो जाता है। प्रव्रजित हो कर वह इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार करता है - मैं जीवन भर बेले बेले का तपःसाधना यावत् केवल चावल को इक्कीस बार पानी से धो कर फिर आहार करूंगा। इस प्रकार सोच कर इस आकार वाला यह अभिग्रह ग्रहण कर वह जीवनभर निरन्तर बेले बेले की तपःसाधना करता है । यह आतापना - भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करता है । बेले के पारणे में आतपना - भूमि से उतरता है, उतर कर स्वयं काष्ठमय पात्र ग्रहणकर ताम्रलिप्ति नगरी के उच्च, नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करता है। पर्यटन कर केवल चावल ग्रहण करता है, ग्रहण कर उसे इक्कीस बार पानी से धोता है, धो कर फिर आहार करता है ।
३४. भन्ते ! इस प्रव्रज्या को प्राणामा प्रव्रज्या किस अपेक्षा से कहा जाता है ?
गौतम ! प्राणामा प्रव्रज्या से प्रव्रजित होने वाला जहां जिस इन्द्र, कार्तिकेय, रुद्र, शिव, वैश्रणव, आर्या कौट्टक्रिया, राजा, युवराज, कोटवाल, मडम्बाधिपति, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौवा, कुत्ता अथवा चण्डाल को देखता है, वहीं उसको प्रणाम करता है। वह किसी उच्च (पूज्य) को देखता है तो अतिशायी विनम्रता के साथ प्रणाम करता है, नीच (अपूज्य) को देखता है तो साधारण विनम्रता से प्रणाम करता है। जिसे जिस रूप में देखता है, उसे उसी रूप में प्रणाम करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से इस प्रव्रज्या को प्राणामा प्रव्रज्या कहा जाता है ।
३५. वह मौर्यपुत्र तामलि उस प्रधान, विपुल, अनुज्ञात और प्रगृहीत बालतपः कर्म से सुखा, रूखा, मांस - रहित चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते समय किट किट शब्द से युक्त, कृश और धमनियों का जालमात्र हो गया ।
३६. किसी एक दिन मध्यरात्रि में अनित्य जागरिका करते हुए उस बालतपस्वी तामलि के मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - मैं इस विशिष्ट तप वाले प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, श्रीसम्पन्न, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, उत्तम और महान् प्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, यावत् धमनियों का जालमात्र हो गया हूं। अतः जब तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम है, तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर ताम्रलिप्ति नगरी में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणों) और गृहस्थों, तापस - जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों तथा तापस जीवन में परिचितों को पूछ कर ताम्रलिप्ति नगरी के मध्य भाग से गुजर कर पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण और काष्ठमय पात्र को एकान्त में छोड़ कर ताम्रलिप्ति नगरी के उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण)
१०७