Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. ५ : उ. ६: सू. १३४-१३८
भगवती सूत्र
गौतम! जिस समय वह पुरुष धनुष हाथ में लेता है, लेकर बाण को धनुष पर चढ़ाता है, चढ़ाकर स्थान (वैशाख नामक युद्ध की मुद्रा) में खड़ा होता है, खड़ा होकर बाण को कान की लम्बाई तक खींचता है और ऊपर आकाश की ओर उसे फेंकता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपात-क्रियाइन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से धनुष बना, वे जीव भी कायिकी यावत् पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। इसी प्रकार जिन जीवों के शरीर से धनुःपृष्ठ, प्रत्यञ्चा, स्नायु और बाण बने, वे जीव पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। शर, बाण का पक्ष, बाण का फलक और स्नायु ये सब जिन जीवों के शरीर से बने हैं, वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते
१३५. वह बाण अपनी गुरुता से, भारीपन से, गुरुतम भारीपन से स्वाभाविक रूप से नीचे
आता हुआ वहां रहे हुए प्राण यावत् सत्त्वों का प्राण-वियोजन करता है, तब वह पुरुष कितनी क्रियाओं से स्पृष्ट होता है? गौतम! जिस समय बाण अपनी गुरुता से यावत् प्राण का वियोजन करता है, तब वह पुरुष कायिकी यावत् चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से धनुष, धनुःपृष्ठ, प्रत्यञ्चा और स्नायु बने हैं, वे जीव भी चार क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। बाण, शर, बाण का पक्ष, बाण का फलक और स्नायु-ये सब जिन जीवों के शरीर से बने हैं, वे जीव पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। जो जीव नीचे गिरते हुए बाण के आलम्बन बनते हैं, वे जीव भी कायिकी यावत् पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। अन्ययूथिक-पद १३६. भन्ते! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं जैसे कोई युवा युवती का हाथ अपने हाथ में पकड़ता है, जैसे चक्र की नाभि आरों से युक्त होती है, इसी प्रकार यावत् चार सौ पांच सौ योजन वाला मनुष्य-लोक मनुष्यों से अत्यन्त आकीर्ण है। १३७. भन्ते! यह ऐसे कैसे है?
गौतम! वे अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् मनुष्य-लोक मनुष्यों से अत्यन्त आकीर्ण है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम! मैं ऐसा आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं-जैसे कोई युवा युवती का हाथ अपने आथ में पकड़ता है, जैसे चक्र की नाभि आरों से युक्त होती है, इसी प्रकार यावत् चार सौ पांच सौ योजन वाला नरक-लोक नैरयिकों से अत्यन्त आकीर्ण है। नैरयिक-विक्रिया-पद १३८. भन्ते! नैरयिक एक (शस्त्र) की विक्रिया करने में समर्थ है अथवा अनेक (शस्त्रों) की विक्रिया करने में समर्थ हैं? गौतम! एक (शस्त्र) की भी विक्रिया करने में समर्थ हैं, अनेक (शस्त्रों) की भी विक्रिया करने में समर्थ है। जीवाजीवाभिगम में जैसा आलापक है, वैसा ही ज्ञातव्य है यावत् वे शस्त्रों की विक्रिया कर परस्पर एक-दूसरे शरीर का अभिघात करते हुए उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश,
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