Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ७ : उ. १० : सू. २२०-२२६ बोला-'भन्ते! मैं आपके पास धर्म सुनना चाहता हूं।' महावीर ने धर्म का उपदेश दिया और वह प्रव्रजित हो गया। स्कन्दक (भ. २/५०-६३) की भांति पूरी वक्तव्यता। कालोदायी ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् वह नाना प्रकार के तपःकर्मों से आत्मा को भावित
करता हुआ विहरण कर रहा है। २२१. श्रमण भगवान महावीर किसी समय राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः निष्क्रमण कर नगर से बाहर जनपद-विहार कर रहे हैं। कालोदायी का कर्म आदि के विषय में प्रश्न का पद २२२. उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर और गुणशिलक नाम का चैत्य। श्रमण भगवान महावीर किसी समय वहां समवसृत हुए, परिषद आई, धर्म सुना और वापिस चली गई। २२३. किसी समय अनगार कालोदायी जहां भगवान श्रमण महावीर हैं वहां आता है, आ कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकाल बोला-भन्ते! क्या जीवों के पाप-कर्म पाप-फल-विपाक-संयुक्त होते हैं?
हां, होते हैं। २२४. भन्ते! जीवों के पाप-कर्म पाप-फल-विपाक-संयुक्त कैसे होते हैं? कालोदायी! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ स्थाली-पाक-शुद्ध (हंडिया में पका हुआ) अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से युक्त विषमिश्रित भोजन करता है, उस भोजन का आपात भद्र होता है खाते समय वह सरस लगता है, उसके पश्चात् जैसे-जैसे उसका परिणमन होता है, वैसे-वैसे वह दुरूप, दुर्वर्ण, दुर्गन्ध यावत् दुःखरूप में न सुखरूप में बार-बार परिणत होता है। कालोदायी इसी प्रकार जीवों के अठारह पाप होते हैं-प्राणातिपात यावत् मिथ्या-दर्शन-शल्य। उस पापवर्ग का आपात भद्र होता है-करते समय वह अच्छा लगता है, उसके पश्चात् जैसे-जैसे उसका विपरिणमन होता है, वैसे-वैसे वह दुरूप, दुर्वर्ण, दुर्गन्ध यावत् दुःखरूप में न सुखरूप में बार-बार परिणत होता है। कालोदायी! इसी प्रकार जीवों के पाप कर्म पाप-फल-विपाक-संयुक्त होते हैं। २२५. भन्ते! क्या जीवों के कल्याण कर्म कल्याण-फल-विपाक-संयुक्त होते हैं?
हां, होते हैं। २२६. भन्ते! जीवों के कल्याण कर्म कल्याण-फल-विपाक-संयुक्त कैसे होते हैं? कालोदायी! जैसे कोई मनुष्य मनोज्ञ स्थालीपाक शुद्ध अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से युक्त औषधिमिश्रित भोजन करता है, उस भोजन का आपात भद्र नहीं होता-खाते समय वह नीरस लगता है, उसे पश्चात् जैसे-जैसे उसका परिणमन होता है, वैसे-वैसे वह सुरूप, सुवर्ण यावत् सुखरूप में न दुःखरूप में बार-बार परिणत होता है। कालोदायी! इसी प्रकार जीवों के प्राणातिपाप-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक होते हैं। उस विरमण और विवेक का आपात भद्र नहीं होता-प्रारम्भ में वह नीरस लगता है, उसके पश्चात् जैसे-जैसे उसका परिणमन होता है वैसे-वैसे वह सुरूप, सुवर्ण यावत् सुखरूप
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