Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
भगवती सूत्र
गौतम ! महाविदेह-क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा । २११. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है ।
दसवां उद्देशक
कालोदायी प्रभृति का पञ्चास्तिकाय में सन्देह - पद
२१२. उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था - नगर का वर्णन। गुणशिलक नाम चैत्य-वर्णन। यावत् पृथ्वीशिलापट्ट । उस गुणशिलक चैत्य के न बहुत दूर न बहुत निकट अनेक अन्ययूथिक निवास करते थे, जैसे - कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदक, नामोदक, नर्मोदक, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति ।
श. ७: उ. ९, १० : सू. २१०-२१६
२१३. वे अन्ययूथिक किसी समय अपने-अपने आवासगृहों से निकल कर एकत्र हुए, एक स्थान पर बैठे। उनमें परस्पर इस प्रकार का समुल्लाप प्रारंभ हुआ— श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्रज्ञापना करते हैं, जैसे- धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय ।
उनमें श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकायों को अजीवकाय बतलाते हैं, जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । श्रमण ज्ञातपुत्र एक जीवास्तिकाय को, जो अरूपीकाय है, जीवकाय बतलाते हैं ।
उनमें श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकायों को अरूपीकाय बतलाते हैं, जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय । श्रमण ज्ञातपुत्र एक पुद्गलास्तिकाय को जो रूपीकाय अजीवकाय बतलाते हैं। क्या यह ऐसा है ?
२१४. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर यावत् गुणशिलक चैत्य में समवसृत हुए यावत् परिषद् आई, धर्मोपदेश सुन चली गई ।
२१५. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्री इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए आवश्यकतानुसार पर्याप्त भक्तपान ग्रहण कर राजगृह नगर से बाहर आते हैं। त्वरा -, चपलता और संभ्रम रहित होकर युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्यासमिति का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए उन अन्ययूथिक के न अति दूर न अति निकट से जा रहे थे ।
२१६. ये अन्ययूथिक भगवान् गौतम को न अति दूर ओर न अति निकट से जाते हुए देखते हैं, देख कर परस्पर एक-दूसरे को बुलाते हैं, बुला कर इस प्रकार कहा— देवानुप्रियो ! यह कथा—अस्तिकाय की वक्तव्यता हमारे लिए अप्रकट है - अस्पष्ट है और यह गौतम हमारे पार्श्ववर्ती मार्ग से जा रहा है । देवानुप्रियो ! हमारे लिए श्रेय है कि हम यह अर्थ गौतम से पूछें, यह चिन्तन कर वे एक दूसरे के पास जा इस विषय का प्रतिश्रवण ( विचार-विनिमय) करते हैं, प्रतिश्रवण कर जहां भगवान गौतम हैं, वहां आए, आकर भगवान् गौतम से इस प्रकार बोले - गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच आस्तिकायों का प्रज्ञापन करते हैं, जैसे- धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय । पूर्ववत् वक्तव्यता यावत् रूपीकाय अजीवकाय का प्रज्ञापन करते हैं। गौतम ! यह इस प्रकार की वक्तव्यता कैसे संगत है ?
२५५