Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
१४२. भन्ते! इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के नोचे क्या बादर अग्निकाय है ?
गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है, विग्रह-गति करते हुए जीवों को छोड़कर ।
१४३. भन्ते ! इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के नीचे क्या चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है ।
श. ६ : उ. ८ : सू. १४२-१५०
१४४. भन्ते ! इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के नीचे क्या चन्द्रमा की आभा है ? सूर्य की आभा है ? यह अर्थ संगत नहीं है ।
इस प्रकार दूसरी पृथ्वी के विषय में वक्तव्य है । इसी प्रकार तीसरी पृथ्वी के विषय में भी वक्तव्य है । केवल इतना विशेष है -देव भी करता है, असुर भी करता है, नाग नहीं करता । चौथी पृथ्वी के विषय भी इसी प्रकार वक्तव्यता । केवल इतना विशेष है-अकेला देव करता है, असुर नहीं करता, नाग भी नहीं करता। इसी प्रकार नीचे की सभी पृथ्वियों में अकेला देव करता है।
१४५. भन्ते ! सौधर्म और ईशान कल्प के नीचे क्या घर हैं? घर की आपण हैं ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
१४६. भन्ते! वहां बड़े मेघ हैं ?
हां हैं।
उसे देव करता है, असुर भी करता है, नाग नहीं करता ।
इसी प्रकार गर्जन शब्द की वक्तव्यता ।
१५७. भन्ते ! वहां क्या बादर - पृथ्वीकाय है ? बादर - अग्निकाय है ? यह अर्थ संगत नहीं है, विग्रह-गति करते हुए जीवों को छोड़ कर । १४८. भन्ते ! वहां चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप हैं ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
१४९. भन्ते! वहां क्या गांव हैं ? यावत् सन्निवेश हैं ?
यह अर्थ संगत नहीं है।
१५०. भन्ते ! क्या वहां चन्द्रमा की आभा है ? सूर्य की आभा है ?
गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है।
इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र-कल्पों की वक्तव्यता । केवल इतना विशेष है-अकेला देव करता है । इसी प्रकार ब्रह्मलोक की वक्तव्यता । इसी प्रकार ब्रह्मलोक से ऊपर सर्वत्र (अच्युत -कल्प तक) देव करता है । बादर अप्काय, बादर - अग्निकाय और बादर-वनस्पतिकाय प्रष्टव्य है इनका निषेध है। शेष सर्व पूर्ववत् वक्तव्य हैं ।
संग्रहणी गाथा
तमस्काय और पांच कल्पों - सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्म में बादर - अग्निकाय
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