Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. ३ : उ. ३ : सू. १४५-१४८
भगवती सूत्र हुआ और समारम्भ में प्रवृत्त रहता हुआ अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी बनाता है, शोकाकुल करता है, जुराता (शरीर को जीर्ण अथवा खेदखिन्न करता) है, रुलाता है, पीटता है और परिताप देता है। मण्डितपुत्र! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है जब तक जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती। १४६. भन्ते! क्या जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत नहीं होता है ? हां, मण्डितपुत्र! जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत नहीं होता है। १४७. भन्ते! क्या जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ
और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है? हां, मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता है तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब उस जीव की
अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है। १४८. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता है तथा उस-उस भाव में (परिणाम) में परिणत नहीं होता, तब उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है? मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब वह जीव न आरम्भ करता है, न संरम्भ करता है, न समारंभ करता है। वह न आरम्भ में प्रवृत्त होता है, न संरम्भ में प्रवृत्त होता है, न समारम्भ में प्रवृत्त होता है। वह आरम्भ नहीं करता हुआ, संरम्भ नहीं करता हुआ, समारम्भ नहीं करता हुआ, आरम्भ में अवर्तमान, संरम्भ में अवर्तमान, समारम्भ में अवर्तमान होकर अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी नहीं बनाता, शोकाकुल नहीं करता, न जुराता (शरीर को जीर्ण अथवा खेदखिन्न नहीं करता), न रुलाता, न पीटता और न परिताप देता है।
जैसे कोई व्यक्ति सूखे तृणपूले को अग्नि में प्रक्षिप्त करे, तो क्या मण्डितपुत्र! वह सूखा तृणपूला अग्नि में प्रक्षिप्त होने पर शीघ्र ही जल जाता है? हां, वह शीघ्र ही जल जाता है। जैसे कोई पुरुष तपे हुए तवे पर जल-बिन्दु गिराए, तो क्या मण्डितपुत्र! वह जल-बिन्दु तपे हुए तवे पर गिरने पर शीघ्र ही विध्वंस को प्राप्त होता है? हां, वह विध्वंस को प्राप्त होता है।
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