Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ३ : उ. ३ : सू. १४८-१५१ मण्डितपुत्र! जैसे कोई द्रह (नद) जल से भरा हुआ, परिपूर्ण, छलकता हुआ, हिलोरे लेता हुआ, चारों ओर से जल-जलाकर हो रहा है। कोई व्यक्ति उस द्रह में एक बहुत बड़ी, सैंकड़ों
आश्रवों और सैंकड़ों छिद्रों वाली नौका को उतारे तो क्या मण्डितपुत्र! वह नौका इन आश्रवद्वारों के द्वारा जल से भरती हुई–भरती हुई परिपूर्ण हो जाती है, भर जाती है? छलकती हुई, हिलोरें लेती हुई चारों ओर से जल-जलाकर हो जाती हैं?
हां, हो जाती है। यदि कोई पुरुष उस नौका के आश्रव-द्वारों को चारों ओर से रोक देता है। उन्हें रोक कर नौका के उत्सेचनक द्वारा जल को उलीच दे, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह नौका उस पानी के बाहर निकल जाने पर शीघ्र ही ऊपर आ जाती है? हां, आ जाती है। मण्डितपुत्र! इसी प्रकार जो अनगार आत्मना संवृत, विवेकपूर्वक चलता है, विवेकपूर्वक बोलता है, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करता है, विवेकपूर्वक वस्त्र-पात्र आदि को लेता
और रखता है, विवेकपूर्वक मलमूत्र, श्लेषमा, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता है, मन की संगत प्रवृत्ति करता है, वचन की संगत प्रवृत्ति करता है, शरीर की संगत प्रवृत्ति करता है, मन का निरोध करता है, वचन का निरोध करता है, शरीर का निरोध करता है, अपने आप को सुरक्षित रखता है, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता है, उसके उपयोगपूर्वक चलते, खड़े रहते, बैठते और सोते तथा उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रौंछन लेते-रखते समय और यावत् उन्मेष-निमेष करते समय भी विविध मात्रा वाली सूक्ष्म ऐर्यापथिकी क्रिया होती है-वह प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट होती है, दूसरे समय में उसका वेदन होता है, तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाती है। वह बद्ध, स्पृष्ट, उदीरित, वेदित, निर्जीर्ण तथा अगले समय में अकर्म भी हो जाती है। मण्डितपुत्र! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जब जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा नहीं करता तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब उस जीव के
अंतिम समय में अन्तक्रिया होती है। प्रमत्त और अप्रमत्त के काल का पद १४९. भंते! प्रमत्त-संयम में वर्तमान प्रमत्त-संयत (मुनि) के प्रमत्त-अवस्था का काल काल
की अपेक्षा कितना लम्बा होता है? मण्डितपुत्र! एक जीव की अपेक्षा जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः कुछ-कम-करोड़-पूर्व । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्व-काल। १५०. भंते! अप्रमत्त संयम में वर्तमान अप्रमत्त संयत (मुनि) के अप्रमत्त-अवस्था का काल काल की अपेक्षा कितना लम्बा होता है? मण्डितपुत्र! एक जीव की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कुछ-कम-करोड़-पूर्व । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्व-काल। १५१. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। ऐसा कहकर भगवान् मण्डितपुत्र अनगार
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