Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
श. ३ : उ. १ : सू. ४५-५० ।
भगवती सूत्र देवराज ईशान? ऐसा कहकर वे बालतपस्वो तामलि के शरीर की हेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, कदर्थना करते हैं, व्यथा (अथवा संचालन) उत्पन्न करते हैं और घसीटते हैं। हेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, कदर्थना कर और व्यथित कर, घसीट कर उसे एकान्त में डाल देते हैं। डाल कर जिस दिशा से आए उसी दिशा में चले गये। ४६. वे ईशान-कल्पवासी अनेक वैमानिक-देव और देवियां बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले
अनेक असुरकुमार-देवों और देवियों के द्वारा बालतपस्वी तामलि के शरीर की हेलना, नन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, कदर्थना, व्यथा (संचालन) की जा रही है, उसे घसीटा जा रहा है यह देखते हैं। देख कर वे तत्काल आवेश में आ जाते हैं यावत् क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो जाते हैं। वे जहां देवेन्द्र देवराज ईशान हैं, वहां आते हैं। आ कर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दश-नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर मस्तक पर टिका कर जय-विजय की ध्वनि से उन्हें वर्धापित कर वे इस प्रकार बोले–देवानुप्रिय ! बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां आपको मृत जान कर तथा ईशान-कल्प में इन्द्र के रूप में उपपन्न देखकर तत्काल आवेश में आ गए यावत् उस शरीर को घसीटते हुए एकान्त में डाल देते हैं। डाल कर जिस दिशा से आए उसी दिशा में चले गए। . ४७. देवेन्द्र देवराज ईशान उन ईशान-कल्पवासी अनेक वैमानिक-देवों और देवियों के पास यह बात सुन कर, अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया यावत् क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो गया। वह उसी शयनीय (शय्या) पर बैठा हुआ ललाट पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि को चढ़ा कर अपने ठीक नीचे बलिचञ्चा राजधानी को देखता है। ४८. वह बलिचञ्चा राजधानी देवेद्र देवराज ईशान के द्वारा अपने ठीक नीचे दृष्ट होने पर उस दिव्य प्रभाव से अंगारों, मुर्मुरों (भस्म-मिश्रित अग्निकणों), राख एवं तपे हुए तवे के समान हो गई। वह ताप से तप्त और अग्नि तुल्य बन गई। ४९. वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार-देव और देवियां उस बलिचञ्चा राजधानी को अंगारों के समान तप्त यावत् अग्नि-तुल्य देखते हैं। देख कर भीत और प्रकम्पित हो गए। उनके कंठ प्यास से सूख गए। वे उद्विग्न और भय से व्याकुल होकर चारों
ओर इधर-उधर दौड़ रहे हैं, दौड़कर वे परस्पर एक दूसरे के शरीर का आश्लेष कर रहे हैं। ५०. बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां देवेन्द्र देवराज ईशान को परिकुपित जान कर, देवेन्द्र देवराज ईशान की उस दिव्य देवर्द्धि दिव्य देव-द्युति, दिव्य देवानुभाव और दिव्य तेजोलेश्या को सहन करने में असमर्थ हो कर वे सब ठीक देवराज ईशान की दिशा में खड़े हो कर, दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुटवाली दशनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर, मस्तक पर टिका कर जय-विजय ध्वनि से उन्हें वर्धापित, करते हैं, वर्धापित कर वे इस प्रकार बोले-अहो! आपने दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देव-द्युति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया है, प्राप्त किया है, अभिसमन्वात (विपाकाभिमुख) किया है। आपने जो दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देव-द्युति और दिव्य देवानुभाव
११०