Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
भगवती सूत्र
श. ३ : उ. २ : सू. १२७-१३० चमर की चिन्ता का पद १२७. असुरेन्द्र असुरराज चमर वज्र के भय से मुक्त हो गया। किन्तु देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान से अपमानित बना हुआ चमरचञ्चा राजधानी की सुधर्मा सभा में चमर सिंहासन पर बैठा हुआ, उपहत मनः-संकल्प वाला, चिन्ता और शोक के सागर में निमग्न, मुख हथेली पर टिकाए हुए, आर्तध्यान में लीन और दृष्टि को भूमि पर गाड़े हुए कुछ चिन्तन
कर रहा था। १२८. सामानिक परिषद् में उपपन्न देव उपहत-मनः-संकल्प वाले यावत् चिन्ता-रत असुरेन्द्र
असुरराज चमर को देखते हैं और देखकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दशनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिका कर जय-विजय की ध्वनि से उसको वर्धापित करते हैं। वर्धापित कर इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! आज उपहत-मनः-संकल्प वाले, चिन्ता और शोक के सागर में निमग्न, मुख हथेली पर टिकाए हुए, आर्तध्यान में लीन और दृष्टि को भूमि पर गाड़े हुए आप क्या चिन्तन कर रहे हैं? १२९. असुरेन्द्र असुरराज चमर ने उन सामानिक परिषद् में उपपन्न देवों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर की निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक्र की स्वयं की अति आशातना की। इससे परिकुपित होकर उसने मुझे मारने के लिए वज्र का प्रक्षेपण किया। देवानुप्रियो! भला हो श्रमण भगवान् महावीर का, जिनके प्रभाव से मैं अक्लिष्ट, अव्यथित
और अपरितापित रहकर यहां आया हूं, यहां समवसृत हूं, यहां सम्प्राप्त हूं और आज इसी स्थान में उपसम्पन्न(प्रशान्त)-अवस्था में विहरण कर रहा हूं। इसलिए देवानुप्रियो! हम श्रमण भगवान् महावीर के पास चलें, उन्हें वन्दन-नमस्कार करें यावत् पर्युपासना करें, ऐसा सोचकर वह चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ यावत् अपनी समग्र ऋद्धि के साथ यावत् जहां प्रवर अशोक वृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है, वहां आता है, आकर तीन बार दांई ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा कर, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला मैंने आपकी निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक्र की स्वयं अति आशातना की। उसने परिकुपित होकर मुझे मारने के लिए वज्र का प्रक्षेपण किया। भला हो देवानुप्रियो! आपका जिनके प्रभाव से मैं अक्लिष्ट, अव्यथित
और अपरितापित रह कर यहां आया हूं, यहां समवसृत हूं, यहां संप्राप्त हूं और आज इसी स्थान में उपसम्पन्न अवस्था में विहरण कर रहा हूं। देवानुप्रियो! मैं आपसे क्षमायाचना करता हूं, देवानुप्रियो! आप मुझे क्षमा करें; देवानुप्रियो! आप क्षमा करने में समर्थ हैं। मैं पुनः ऐसा कभी नहीं करूंगा। ऐसा कहकर वह मुझे वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशाभाग में अवक्रमण करता है अवक्रमण कर यावत् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि दिखाता है। दिखाकर जिस दिशा से आया, उसी दिशा में चला गया। १३०. गौतम! इस प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवानुभाग उपलब्ध किया, प्राप्त किया, अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया। उसकी स्थिति एक सागरोपम की है। वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा।
१२५