Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २ : उ. ५ : सू. ८८-९४
होता है । स्त्री और पुरुष स्नेह (वीर्य और शोणित) का संचय करते हैं। संचय करने के पश्चात् वहां जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कर्षतः नौ लाख जीव पुत्र रूप में उत्पन्न हो सकते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - जघन्यतः एक, दो या तीन उत्कर्षतः नौ लाख जीव पुत्र रूप में उत्पन्न हो सकते हैं ।
८९. भन्ते ! मैथुन सेवन करने वाले जीव के कैसा असंयम होता है ?
गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष तपी हुई शलाका से रूई से भरी हुई नालिका अथवा बूर से भरी हुई नलिका ध्वस्त कर देता है । गौतम ! मैथुन सेवन करने वाले जीव के ऐसा असयंम
होता है।
९०.
भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते ! वह ऐसा ही है, इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं ।
९१. श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर और गुणशिल चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः निष्क्रमण कर राजगृह के आसपास जनपद में विहरण कर रहे हैं।
तुंगिकानगरी - श्रमणोपासक - पद
९२. उस काल और उस समय तुंगिका नामक नगरी थी - नगर - वर्णन |
९३. उस तुंगिका नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में पुष्पवतिक नामक चैत्य था - चैत्य-वर्णन |
९४. उस तुंगिका नगरी में अनेक श्रमणोपासक रहते हैं । वे सम्पन्न और दीप्तिमान हैं। उनके विशाल और प्रचुर भवन शयन आसन वाले और यान वाहन से आकीर्ण हैं। उनके पास प्रचुर धन, सोना और चांदी हैं। वे आयोग और प्रयोग में संलग्न हैं। उनके घर में विपुलमात्रा में भोजन और पान दिया जा रहा है। उनके पास अनेक दास, दासी, गाय, भैंस और भेड़ें हैं। वे बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय हैं। जीव अजीव को जानने वाले, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाले, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के विषय में कुशल, सत्य के प्रति स्वयं निश्चल, देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देव-गणों के द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अविचलनीय, इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका - रहित, कांक्षा - रहित, विचिकित्सा - रहित, यथार्थ को सुनने वाले, ग्रहण करने वाले, उस विषय में प्रश्न करने वाले, उसे जानने वाले, उसका विनिश्चय करने वाले, (निर्ग्रन्थ प्रवचन के) प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि - मज्जावाले 'आयुष्यमन् | यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन यथार्थ है । यह परमार्थ है, शेष अनर्थ है', (ऐसा मानने वाले), आगल को ऊंचा और दरवाजे को खुला रखने वाले, अन्तःपुर और दूसरों के घर में बिना किसी रुकावट के प्रवेश करने वाले, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन करने वाले, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रौंछन, औषध - भैषज्य, पीठ - फलक, शय्या और संस्तारक का दान देने वाले, बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा तथा यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं ।
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