Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २ : उ. ५ : सू. ९५-९७
९५. उस काल और उस समय पार्श्वापत्यीय स्थविर भगवान् जो जाति सम्पन्न, कुल सम्पन्न, बल-सम्पन्न, रूप-सम्पन्न, विनय - सम्पन्न, ज्ञान- सम्पन्न, दर्शन - सम्पन्न, चारित्र - सम्पन्न, लज्जा-सम्पन्न, लाघव-सम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, निद्राजयी, जितेन्द्रिय, परीषहजयी, जीने की आशंसा और मृत्यु के भय से मुक्त, तप-प्रधान, गुण प्रधान, करण - प्रधान, चरण- प्रधान, निग्रह-प्रधान, निश्चय- प्रधान, मार्दव-प्रधान, आर्जव प्रधान, लाघव - प्रधान, क्षमा-प्रधान, मुक्ति-प्रधान, विद्या- प्रधान, मन्त्र - प्रधान, वेद प्रधान, ब्रह्म- प्रधान, नय प्रधान, नियम- प्रधान, सत्य - प्रधान, शौच - प्रधान, चारुप्रज्ञ, पवित्र हृदय वाले, निदान रहित, उत्सुकता - रहित, आत्मोन्मुखी भावधारा वाले, सुश्रामण्य में रत, प्रश्न का यथार्थ उत्तर देने वाले, कुत्रिकापण-तुल्य, बहुश्रुत और बहुत परिवार वाले हैं, वे पांच सौ अनगारों के साथ सपरिवृत होकर अनुक्रम से परिव्रजन करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में घूमते हुए सुखपूर्वक विहरण करते हुए जहां तुंगिका नगरी है, जहां पुष्पवतिक चैत्य है, वहां आए और आकर प्रवासयोग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं ।
९६. उस तुंगिका नगरी के शृङ्गाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहट्टों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर यावत् नागरिक जन एक ही दिशा के अभिमुख जा रहे हैं ।
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९७. वे श्रमणोपासक इस कथा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट चित्तवाले, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले, परम-सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले हो गए। वे परस्पर एक दूसरे को सम्बोधित कर इस प्रकार बोले- देवानुप्रियो ! पार्श्वपत्यीय स्थविर भगवान् जो जाति-सम्पन्न हैं यावत् प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए रह रहे हैं ।
देवानुप्रियो ! तथारूप स्थविर भगवान् के नाम गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है, फिर अभिगमन, वन्दन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या ? एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का श्रवण महान् फलदायक है फिर विपुल अर्थ-ग्रहण का कहना ही क्या ? इसलिए देवानुप्रिय ! हम चलें, स्थविर भगवान् को वन्दन-नमस्कार करें, सत्कार - सम्मान करें। वे कल्याणकारी हैं, मंगल देव और प्रशस्त चित्तवाले हैं, उनकी पर्युपासना करें। यह हमारे परभव और इहभव के लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस् और आनुगमिकता के लिए होगा। ऐसा सोचकर वे परस्पर, इस विषय की प्रतिज्ञा करते हैं, प्रतिज्ञा कर जहां अपने-अपने घर हैं, वहां आते हैं, वहां आकर उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक ( तिलक आदि ) मंगल ( दधि, अक्षत आदि) और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध प्रावेश्य (सभा में प्रवेशोचित) मांगलिक वस्त्रों को विधिवत् पहना । अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया । ( इस प्रकार सज्जित होकर वे) अपने-अपने घरों से निकलकर एक साथ मिलते हैं। एक साथ मिलकर पैदल चलते हुए तुंगिका नगरी के बीचोंबीच निर्गमन करते हैं, निर्गमन कर जहां पुष्पवतिक चैत्य है, वहां आते हैं, वहां आकर पांच प्रकार के अभिगमों से स्थविर भगवान् के पास जाते हैं । (जैसे - १. सचित्त द्रव्यों को छोड़ना २. अचित्त द्रव्यों को छोड़ना, २. एक- शाटक-वाला
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