Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. २ : उ. १० : सू. १३१-१३६
भगवती सूत्र गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। १३२. भन्ते! क्या एक प्रदेश कम धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है?
गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। १३३. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता यावत् एक प्रदेश कम धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता है? गौतम! क्या चक्र का खण्ड चक्र कहलाता है? अथवा अखण्ड चक्र चक्र कहलाता है? भगवन्! चक्र का खण्ड चक्र नहीं कहलाता, अखण्ड चक्र चक्र कहलाता है। क्या छत्र का खण्ड छत्र कहलाता है? अथवा अखण्ड छत्र छत्र कहलाता है। भगवान् ! छत्र का खण्ड छत्र नहीं कहलाता, अखण्ड छत्र कहलाता है। क्या चर्म का खण्ड चर्म कहलाता है? अथवा अखण्ड चर्म चर्म कहलाता है। भगवन्! चर्म का खण्ड चर्म नहीं कहलाता, अखण्ड चर्म चर्म कहलाता है। क्या दण्ड का खण्ड दण्ड कहलाता है? अथवा अखण्ड दण्ड दण्ड कहलाता है? भगवन् ! दण्ड का खण्ड दण्ड नहीं कहलाता, अखण्ड दण्ड दण्ड कहलाता है। क्या वस्त्र का खण्ड वस्त्र कहलाता है ? अथवा अखण्ड वस्त्र वस्त्र कहलाता है? भगवन् ! वस्त्र का खण्ड वस्त्र नहीं कहलाता, अखण्ड वस्त्र वस्त्र कहलाता है। क्या आयुध का खण्ड आयुध कहलाता है? अथवा अखण्ड आयुध आयुध कहलाता है? भगवन्! आयुध का खण्ड आयुध नहीं कहलाता, अखण्ड आयुध आयुध कहलाता है। क्या मोदक का खण्ड मोदक कहलाता है? अथवा अखण्ड मोदक मोदक कहलाता है। भगवन् ! मोदक का खण्ड मोदक नहीं कहलाता, अखण्ड मोदक मोदक कहलाता है। गौतम ! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता यावत् एक प्रदेश कम धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। १३४. भन्ते! धर्मास्तिकाय किसे (कितने प्रदेशों को) कहा जा सकता है?
गौतम! धर्मास्तिकाय के असंख्येय प्रदेश हैं। वे सब प्रतिपूर्ण, निरवशेष और एक शब्द (धर्मास्तिकाय) के द्वारा गृहीत होते हैं-गौतम! इसको धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है। १३५. इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय वक्तव्य है। आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं, केवल इतना अन्तर है-इन तीनों के प्रदेश अनन्त होते हैं। शेष पूर्ववत्। जीवत्व-उपदर्शन-पद १३६. भन्ते! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव
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