Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २ : उ. ५ : सू. १०६-११० यावत् परिषद् आई और लौट गई। १०६. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूति नामक
अनगार यावत् विपुल-तेजो-लेश्या को अन्तर्लीन रखने वाले बिना विराम षष्ठभक्त तपःकर्म तथा संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं। १०७. भगवान् गौतम षष्ठभक्त के पारण में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय प्रहर में
ध्यान करते हैं, तृतीय प्रहर में त्वरता- चपलता- और संभ्रम-रहित होकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करते हैं, प्रतिलेखन कर पात्र-वस्त्र का प्रतिलेखन करते हैं, प्रतिलेखन कर पात्रों का प्रमार्जन करते हैं, प्रमार्जन कर पात्रों को हाथ में लेते हैं, लेकर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले–भन्ते! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर षष्ठभक्त के पारण में राजगृह नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमना चाहता हूं।
देवानुप्रिय! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। १०८. भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण भगवान महावीर के पास गुणशील चैत्य से बाहर आते हैं, बाहर आकर त्वरता-, चपलता- और संभ्रम-रहित होकर युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या समिति का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां राजगृह नगर है वहां आते हैं, आकर राजगृह नगर के उच्च, नीच और मध्यम
कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हैं। १०९. भगवान् गौतम राजगृह नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या
के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनते हैं-देवानुप्रिय! तुंगिका नगरी से बाहर पुष्पवतिक चैत्य में पार्श्वपत्यीय भगवान् स्थविरों से श्रमणोपासकों ने ये इस प्रकार के प्रश्न पूछे–भन्ते! संयम का फल क्या है? तप का फल क्या है? उन भगवान् स्थविरों ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार कहा–आर्यो! संयम का फल अनास्रव है, तप का फल व्यवदान है। इसी प्रकार यावत् पूर्वकृत तप, पूर्वकृत संयम, कर्म की सत्ता और आसक्ति के कारण देव देवलोकों में उपपन्न होते हैं। यह अर्थ सत्य है, अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है।
तो क्या यह ऐसे ही है? ११०. यह कथा सुनकर भगवान् गौतम के मन में श्रद्धा यावत् कुतूहल उत्पन्न हुआ। वे यथापर्याप्त भिक्षा लेते हैं, लेकर राजगृह नगर से बाहर आते हैं, त्वरा-, चपलता- और संभ्रम-रहित होकर युगप्रमाण भूमि को देखले वाली दृष्टि से ईर्या-समिति का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां गुणशिलक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न अति निकट रहकर गमनागमन का प्रतिक्रमण करते हैं, प्रतिक्रमण कर, एषणा और अनेषणा की आलोचना करते हैं, आलोचना कर भक्त-पान दिखलाते हैं, दिखलाकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले–भन्ते! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर राजगृह नगर के उच्च,
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