Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २ : उ. १ : सू. ३०-३३ सम्मान करें, भगवान् कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले हैं, हम उनकी पर्युपसना करें। यह हमारे परभव और इस भव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा', ऐसा सोचकर अनेक उग्र, उग्र-पुत्र, भोज, भोज-पुत्र-इस प्रकार द्विपदावतार के रूप में राजन्य, क्षत्रिय, माहन, भट, योद्धा, प्रशासक, मल्लवि, लिच्छवि, लिच्छवि-पुत्र तथा अन्य अनेक राजे, युवराज, कोटवाल, मडम्ब-पति, कुटुम्ब-पति, इभ्य, सेठ, सेना-पति, सार्थवाह आदि हर्षध्वनि, सिंहनाद, अस्पष्ट ध्वनि और कोलाहल ध्वनि से गर्जते हुए महासमुद्र की भांति शब्द करते हुए श्रावस्ती नगरी के ठीक मध्य से निकलते हैं। ३१. अनेक लोगों के पास इस बात को सुनकर, मन में अवधारण कर उस कायात्यनसगोत्र स्कन्दक के इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ श्रमण भगवान् महावीर कयंजला नगरी के बाहर छत्रपलाशक चैत्य में संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं, इसलिए मैं वहां जाऊं और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करूं। श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार कर उनका सत्कार-सम्मान कर कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्तवाले भगवान् की पर्युपासना कर इन इस प्रकार के अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों को पूछना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा, ऐसी संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर वह जहां परिव्राजकों का मठ है, वहां आता है, आकर त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्ष-माला, मृत्-पात्र, आसन, केसरिका (पात्र-प्रमार्जन का वस्त्र-खण्ड) टिकठी, अंकुश, छलनी (छन्ना), कलाई पर पहने जाने वाला रुद्राक्ष-आभरण, छत्र, चर्मनिर्मित पादत्राण और गेरुआ-वस्त्र-ग्रहण करता है। ग्रहण कर वह परिव्राजक के मठ से बाहर निकलता है, बाहर निकलकर उसने त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्ष-माला, मृत्-पात्र, आसन, केसरिका, टिकठी, अंकुश, छलनी, कलाई पर पहने जाने वाला रुद्राक्ष-आभरण को हाथ में लिया, छत्र तथा पादत्राण धारण किए, गेरुआ वस्त्र पहन कर श्रावस्ती नगरी के मध्य से निकलता है, निकल कर जहां कयंजला नगरी है, जहां छत्रपलाशक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान् महावीर है, वहां जाने का उसने संकल्प किया। ३२. 'हे गौतम! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहागौतम! तुम अपने पूर्व मित्र को देखोगे। भन्ते! किसको? स्कन्दक को। कब? कैसे? और कितने समय के पश्चात् ? ३३. गौतम! उस काल और उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी थी-नगर-वर्णन । उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल का शिष्य कात्यायनसगोत्र स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता है। भगवान् ने वह सारी बात बताई यावत् जहां मैं हूं, उसने वहां आने का संकल्प किया। (अब) वह निकट आ गया है, थोड़ी दूरी पर है, वह मार्ग में चल ही रहा है, निकट मार्ग पर है। गौतम! तुम आज ही उसको देखोग।