Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २ : उ. १ : सू. ६६-६८ पराक्रम है; अतः जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम है और जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिन, सुहस्ती, श्रमण भगवान् महावीर विहार कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर प्रफुल्लित उत्पल और अर्ध विकसित कमल वाले तथा पीत आभा वाले प्रभात में लाल अशोक की दीप्ति, पलाश, तोते के मुख और गुजार्ध के समान रंग वाले, जलाशय गत नलिनी-वन के उद्बोधक सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर श्रमण भगवान् महावीर को वंदननमस्कार कर, न अति निकट न अति दूर सुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासन करूं, श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त होने पर मैं स्वयं ही पांच महाव्रतों की आरोपणा करूं, श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना करूं, तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ धीमे-धीमे विपुल पर्वत पर चढ़ सघन मेघ के समान श्याम वर्ण वाले देवों के समागम-स्थल पृथ्वीशिलापट्ट का प्रतिलेखन करूं (उस पर) डाभ का बिछौना बिछाऊं, उस डाभ के बिछौने पर बैठ संलेखना की आराधना में लीन हो, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता है. आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर न अति निकट न अति दूर सुश्रुषा
और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करता है। ६७. स्कन्दक! इस सम्बोधन से संबोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने स्कन्दक अनगार से इस प्रकार कहा-स्कन्दक! मध्यरात्रि में धर्म-जागरिका करते हुए तुम्हारे मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं इस विशिष्ट रूपवाले प्रधान, विपुल तप से कृश हो गया हूं यावत् मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा करते हो, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर तुम जहां मैं हूं, वहां मेरे पास आए हो। स्कन्दक! क्या यह अर्थ संगत है?' हां, यह संगत है।
देवानुप्रिय! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो। ६८. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट-तुष्ट चित्त, वाला,
आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मनवाला, परम सौमनस्य-युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठता है, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर वह स्वयं ही पांच महाव्रतों की आरोहणा करता है, आरोहणा कर श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना करता है, क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग स्थविरों के साथ धीमे-धीमे विपुल पर्वत पर चढ़ता है, चढ़कर सघन मेघ के समान श्यामवर्ण वाले देवों के समागम-स्थल पृथ्वीशिलापट्ट का प्रतिलेखन करता है, प्रतिलेखन कर उच्चार-प्रश्रवण-भूमि का प्रतिलेखन करता है, प्रतिलेखन
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