Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २ : उ. १ : सू. २४-३०
व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिषशास्त्र, अन्य अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक सम्बन्धी नयों में निष्णात था ।
२५. उस श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ रहता था ।
२६. वह वैशाालिक श्रावक पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ किसी दिन जहां कात्यायन - सगोत्र स्कन्दक है, वहां आता है, आकर कात्यायन - सगोत्र स्कन्दक से यह प्रश्न पूछता है— मागध !
१. क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त है ? २. जीव सान्त है अथवा अनन्त है ? ३. सिद्धि सान्त है अथवा अनन्त ? ४. सिद्ध सान्त है अथवा अनन्त है ? ५. किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है अथवा घटता है ? - इस प्रकार मेरे द्वारा पूछे गए इतने प्रश्नों का तुम उत्तर दो। २७. वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के द्वारा ये प्रश्न पूछे जाने पर कात्यायन - सगोत्र स्कन्दक शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुष - समापन्न हो जाता । वह वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ को कुछ भी उत्तर देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाता है, मौन हो जाता है।
२८. वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ कात्यायन सगोत्र स्कन्दक से दूसरी बार और तीसरी बार भी यह प्रश्न पूछता है - मागध !
१. क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त है ? २. जीव सान्त है अथवा अनन्त ? ३. सिद्धि सान्त है अथवा अनन्त है ? ४. सिद्ध सान्त है अथवा अनन्त है ? ५. किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है अथवा घटता है ? - इस प्रकार मेरे द्वारा पूछे गए इतने प्रश्नों का तुम उत्तर दो ।
२९. वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी ये प्रश्न पूछे जाने पर कात्यायन - सगोत्र स्कन्दक शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न हो जाता है। वह वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ को कुछ भी उत्तर देने से अपने आपको समर्थ नहीं पाता है, मौन हो जाता है।
३०. श्रावस्ती नगरी शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर महान् जनसम्मर्द, जनव्यूह, जनबोल, जनकलकल, जन-ऊर्मि, जन-उत्कलिका, जनसन्निपात बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैंदेवानुप्रियो ! धर्मतीर्थ के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक श्रमण भगवान् महावीर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन करते हुए यहां आए हैं, यहां संप्राप्त हुए हैं, यहां समवसृत हुए हैं, इसी कयंजला नगरी के बाहर छत्रपलाशक चैत्य में प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए रह रहे हैं।
देवानुप्रियो ! ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम - गोत्र का श्रवण भी महान् फलदायक है, फिर अभिगमन, वन्दन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या ? एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का श्रवण महान् फलदायक है, फिर विपुल - अर्थ - ग्रहण का कहना ही क्या ? इसलिए देवानुप्रियो ! हम चलें, श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करें, सत्कार -
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