Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १ : उ. ७ : सू. ३४९-३५४ मातृ-जीव-रसहरणी और पुत्र-जीव-रसहरणी-ये दो नाड़ियां होती हैं। वे मातृ-जीव से प्रतिबद्ध और पुत्र-जीव से स्पृष्ट होती है। (गर्भ की नाभि में नाड़ी लगी रहती है, नाड़ी में 'अपरा' (जरायु) लगी रहती है।) उससे गर्भ-गत जीव आहार करता है और उसे परिणत करता है। 'अपरा' पुत्रजीव से प्रतिबद्ध और मातृजीव से स्पृष्ट होती है, उससे गर्भ-गत जीव चय और उपचय करता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-गर्भगत जीव मुख से कवल
आहार करने में सक्षम नहीं है। मात्रिक-पैत्रिक-अंग-पद ३५०. भन्ते! संतान में कितने मातृ-अंग प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! तीन मातृ-अंग प्रज्ञप्त हैं, जैसे–मांस, शोणित और मस्तुलुंग (मस्तिष्कीय मज्जा)। ३५१. भन्ते! संतान में कितने पितृ-अंग प्रज्ञप्त हैं?
गौतम! तीन पितृ-अंग प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अस्थि, अस्थि-मज्जा, केश, श्मश्रु, रोम और नख । ३५२. भन्ते! मातृ-पैत्रिक शरीर (मातृ-अंग और पितृ-अंग) सन्तान के शरीर में कितने काल तक अवस्थित रहता है? गौतम! जितने काल तक उसका भवधारणीय-शरीर अव्यापन्न (अविनष्ट) बना रहता है, उतने काल तक मातृ-पैतृक शरीर सन्तान के शरीर में अवस्थित रहता है। उपचय के अन्तिम समय के अनन्तर मातृ-पैत्रिक शरीर प्रतिक्षण हीयमान होता हुआ अंतिम क्षण में व्यवच्छिन्न हो जाता
गर्भ का नरकागमन-पद ३५३. भन्ते! क्या गर्भ-गत जीव नैरयिकों में उपपन्न होता है?
गौतम! कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता। ३५४. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता? गौतम! सब पर्याप्तियों से पर्याप्त, वीर्य-लब्धि और वैक्रिय-लब्धि से सम्पन्न, संज्ञी-पंचेन्द्रिय गर्भ-गत शिशु शत्रु-सेना का आगमन सुनकर, अवधारणा कर अपने आत्म-प्रदेशों का गर्भ से बाहर प्रक्षेपण करता है, उनका प्रक्षेपण कर वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर चतुरङ्गिणी सेना का निर्माण करता है। निर्माण कर उस चतुरङ्गिणी सेना के द्वारा शत्रुसेना के साथ युद्ध करता है। वह जीव (गर्भ-गत-शिशु) अर्थ-कामी, राज्य-कामी, भोग-कामी और काम-कामी, अर्थकांक्षी, राज्य-कांक्षी, भोग-कांक्षी और काम-कांक्षी तथा अर्थ-पिपासु, राज्य-पिपासु, भोगपिपासु और कामपिपासु होकर उस अर्थ आदि में ही अपने चित्त, मन, लेश्या, अध्यवसाय
और तीव्र अध्यवसान का नियोजन करता है। वह उसी विषय में उपयुक्त हो जाता है। उसके लिए अपने सारे करणों (इन्द्रियों) का समर्पण कर देता है। वह उसकी भावना से भावित हो
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