________________
82
भद्रबाहुसंहिता
आत्म-निवेदन
भद्रबाहु संहिता का अनुवाद करने की बलवती इच्छा केवलज्ञान प्रश्नचूडामणि के अनुवाद के अनन्तर ही उत्पन्न हुई । सन् 1956 में इस कार्य को हाथ में लिया । जैन सिद्धान्त भवन, आरा की दोनों हस्तलिखित प्रतियों का मिलान मुद्रित प्रति से करने के पश्चात् यह निश्चय किया कि ख / 174 प्रति का पाठ अधिक उपयोगी है, अतः इसे ही मूल पाठ मानकर अनुवाद कार्य किया जाय । इधर-उधर के अनेक व्यासंगों के कारण कार्य मन्थर गति से चलता रहा । हाँ, सदा की प्रवृत्ति के अनुसार ग्रन्थ का कार्य समाप्त करके भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री अयोध्या प्रसाट गोयलीय की सेवा में इसे अवलोकनार्थ भेज दिया। उन्होंने अपनी कार्य प्रणाली के अनुसार ग्रन्थमाला के सम्पादक डॉ० हीरालाल जी जैन, निर्देशक प्राकृतिक जैन विद्यापीठ, मुजफ्फरपुर तथा डॉ० ए० एन० उपाध्ये कोल्हापुर के यहाँ इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि को भेज दिया । कुछ समय के पश्चात् डॉ० हीरालाल जी साहब का एक सूचना पत्र मिला और उनकी सूचनाओं के अनुसार संशोधन, परिवर्तन कर पुनः ग्रन्थ को ज्ञानपीठ भेज दिया ।
__ मैं ग्रन्थमाला के सम्पादक उपर्युक्त डॉ. द्वय का अत्यन्त आभारी हूं, जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन का अवसर तथा अपने बहुमूल्य सुझाव दिये। श्री अयोध्या प्रसाद जी गोयलीय, मन्त्री भारतीय ज्ञानपीठ, काशी का भी कृतज्ञ हूं, जिनकी उत्साहवर्धक प्रेरणाएं सर्वदा साहित्य-सेवा के लिए मिलती रहती हैं । परामर्श रूप में सहायता देने वाले विद्वानों में आचार्य श्री राममोहनदास जी एम० ए० संस्कृत
और प्राकृत विभागाध्यक्ष हरप्रसाद जैन कालेज, आरा; पं० लक्ष्मणजी त्रिपाठी व्याकरणाचार्य, राजकीय संस्कृत विद्यालय आरा, श्री प्रेमचन्द्र जैन साहित्याचार्य बी० ए० ह० दा० जैन स्कूल, आरा एवं श्री अमरचन्द तिवारी, आगरा प्रभृति विद्वानों का आभारी हूं। प्रूफ-संशोधन श्री पं० महादेवी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य ने किया है । मैं आपका भी अत्यन्त आभारी हूं।
श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा के विशाल ग्रन्थागार से विवेचन लिखने के लिए सैकड़ों ग्रन्थों का उपयोग किया, अतः भवन का आभार स्वीकार करना परमावश्यक है।
प्रूफ में कई गल्तियां छूट गयी हैं, विज्ञ पाठक संशोधन कर लाभ उठायेंगे। इसमें प्रूफ संशोधन का दोष नहीं है; दोष मेरा है, यत: मेरी लिपि कुछ अस्पष्ट और अवाच्य होती है, जिससे प्रूफ सम्बन्धी त्रुटियाँ रह जाना आवश्यक है । सम्पादन, अनुवाद और विवेचन में प्रमाद एवं अज्ञानतावश अनेक त्रुटियां रह गयी होंगी, कृपालु पाठक उनके लिए क्षमा करेंगे । यह भद्रबाहु संहिता का प्रथम भाग ही है । अवशेष मिल जाने पर इसका द्वितीय भाग सानुवाद और सविवेचन प्रकाशित