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भद्रबाहुसंहिता
पापरूप उल्काएँ घोर अशुभ फल देती हैं तथा शुभ रूप उल्काएं शुभ फल देती हैं । शुभ और अशुभ मिश्रित उल्काएं मिश्रित उभय रूप फल प्रदान करती हैं। इन पुद्गलों का ऐसा ही स्वभाव है ।। 11॥
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इत्येतावत् समासेन प्रोक्तुमुल्कासुलक्षणम् । पृथक्त्वेन प्रवक्ष्यामि लक्षणं व्यासतः पुनः ॥ 2॥
यहाँ तक उल्काओं के संक्षेप में लक्षण कहे, अब पृथक्-पृथक् पुनः विस्तार से वर्णन करता हूँ ।। 12 ।।
इति श्रीभद्रबाहुसंहितायामुल्कालक्षणो द्वितीयोऽध्यायः ।
विवेचन - प्रकृति का विपरीत परिणमन होते ही अनिष्ट घटनाओं के घटने की संभावना समझ लेनी चाहिए । जब तक प्रकृति अपने स्वभावरूप में परिणमन करती है, तब तक अनिष्ट होने की आशंका नहीं । संहिता ग्रंथों में प्रकृति को इष्टानिष्ट सुचक निमित्त माना गया है। दिशाएँ, आकाश, आतप, वर्षा, चाँदनी, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, उपा, सन्ध्या आदि सभी निमित्त सूचक हैं | ज्योतिष शास्त्र में इन सभी निमित्तों द्वारा भावी इष्टानिष्टों की विवेचना की गई है। इस द्वितीय अध्याय में उल्काओं के स्वरूप का विवेचन किया गया है और इनका फलादेश तृतीय अध्याय में वर्णित है । यद्यपि प्रथम अध्याय के विवेचन में उल्काओं के स्वरूप का संक्षिप्त और सामान्य परिचय दिया गया है, तो भी यहाँ संक्षिप्त विवेचन करना अभीप्ट है ।
रात को प्रायः जो तारे टूटकर गिरने हुए जान पड़ते हैं, ये ही उल्काएँ हैं । अधिकांश उल्काएँ हमारे वायुमण्डल में ही भस्म हो जाती हैं और उनका कोई अंश पृथ्वी तक नहीं आ पाता, परन्तु कुछ उल्काएं बड़ी होती हैं। जब वे भूमि पर गिरती हैं, तो उनमे प्रचण्ड ज्वाला सी निकलती है और सारी भूमि उस ज्वाला से प्रकाशित हो जाती है। वायु को चीरते हुए भयानक वेग से उनके चलने का शब्द कोसों तक सुनाई पड़ता है और पृथ्वी पर गिरने की धमक भूकम्प - सी जान पड़ती है। कहा जाता है कि आरम्भ में उल्कापिण्ड एक सामान्य ठण्डे प्रस्तर - पिण्ड के रूप में रहता है । यदि यह वायुमण्डल में प्रविष्ट हो जाता है तो घर्षण के कारण उसमें भयंकर ताप और प्रकाश उत्पन्न होता है, जिससे वह जल उठता है और भीषण गति से दौड़ता हुआ अन्त में राख हो जाता है और जब यह वायुमण्डल में राख नहीं होता, तब पृथ्वी पर गिरकर भयानक दृश्य उत्पन्न कर देता है ।
उल्काओं के गमन का मार्ग नक्षत्र कक्षा के आधार पर निश्चित किया जाय