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भद्रबाहुसंहिता करते हैं तथा फसल भी उत्तम होती है ।।19।।
वायव्यामथ वारुण्यां ये गर्भा स्रवन्ति च ।
"ते वर्ष मध्यमं दधुः सस्यसम्पदमेव च ॥20॥ वायव्यकोण और पश्चिम दिशा में जो मेघ गर्भ धारण करते हैं, उनसे मध्यम जल की वर्षा होती है और अनाज की फसल उत्तम होती है ।।20।।
शिष्टं सुभिक्षं विज्ञेयं जघन्या नात्र संशयः ।
मन्दगाश्च घना वा च सर्वतश्च सुपूजिता: ॥21॥ दक्षिण दिशा में मेघ गर्भ धारण करें तो सामान्यतः शिष्टता, सुभिक्ष समझना चाहिए, इसमें सन्देह नहीं है तथा इस प्रकार के मन्दगति वाले मेघ सर्वत्र पूजे भी जाते हैं ॥21॥
मारुत: तत्प्रभवा: गर्भा धूयन्ते मारुतेन च ।
वातो गर्भाश्च वर्षञ्च करोत्यपकरोति च ॥22॥ वायु से उत्पन्न गर्भ वायु के द्वारा ही आन्दोलित किये जाते हैं तथा वायु चलता है, वर्षा करता है और गर्भ की क्षति भी होती है ।।22।।
कृष्णा नीलाश्च रक्ताश्च पीता: शुक्लाश्च सर्वतः ।
व्यामिश्राश्चापि ये गर्भा: स्निग्धाः सर्वत्र पूजिताः ।।23।। कृष्ण, नील, रक्त, पीत, शुक्ल, मिश्रिववर्ण तथा स्निग्ध गर्भ सभी जगह पूज्य होते हैं - शुभ होते हैं ।।23।।
अप्सराणां तु सदृशाः पक्षिणां जलचारिणाम् ।
वृक्षपर्वतसंस्थाना गर्भाः सर्वत्र पूजिता: ॥24॥ देवांगनाओं के सदृश, जलचर पक्षियों के समान, वृक्ष और पर्वत के आकार वाले गर्भ सर्वत्र पूज्य हैं- शुभ हैं ॥24॥
वापीकूपतडागाश्च' नद्यश्चापि मुहुर्मुहुः ।
पर्यन्ते तादशैग:स्तोयक्लिन्ना नदीवहैः ।।25।। इस प्रकार के गर्भ से बावड़ी, कुंआ, तालाब, नदी आदि जल से लबालब भर जाते हैं तथा इस प्रकार जल कई बार बरसता है ।।25।।
1. वायव्यां (यायां) तु मु० । 2. मध्यमं वर्षणं दद्युः मु० । 3. वर्षन्तु गर्भाश्च मु० । 4 तदागानि मु० । 5. धरावहै: म ।