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त्रयोदशोऽध्यायः
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मत्ता यत्र विपद्यन्ते न माद्यन्ते च योजिताः ।
नागास्तत्र वधो राज्ञो महाऽमात्यस्य वा भवेत् ॥169॥ जहाँ मदोन्मत्त हाथी विपत्ति को प्राप्त हों अथवा मत्त हाथियों की योजना करने पर भी वे मद को प्राप्त न हों तो उस समय वहाँ राजा या महामात्यमहामन्त्री का वध होता है ।।169॥
यदा राजा निवेशेत भूमौ कण्टकसंकुले।
विषमे सिकताकोणे सेनापतिवधो ध्र वम् ॥170॥ ___ जब राजा कंटकाकीर्ण, विषम, बालुकायुक्त भूमि में सेना का निवास करावे-सैन्य शिविर स्थापित करे तो सेनापति के वध का निर्देश समझना चाहिए ।।170।।
श्मशानास्थिरजःकोणे पंचदग्धवनस्पतौ।
शुष्कवृक्षसमाकीर्णे निविष्टो' वधमीयते ॥171॥ श्मशान भूमि की हड्डियां जहाँ हों, धूलि युक्त, दग्ध वनस्पति और शुष्क वक्ष वाली भूमि में सैन्य शिविर की स्थापना की जाये तो वध होता है ।।171॥
कोविदारसमाकीर्णे श्लेष्मान्तकमहाद्र मे।
पिल-कालनिविष्टस्य प्राप्नुयाच्च चिराद् वधम् ॥172॥ लाल कचनार वृक्ष से युक्त तथा गोंद वाले बड़े वृक्षों से युक्त और पीलू के वृक्ष के स्थान में सैन्य शिविर स्थापित किया जाये तो विलम्ब से वध होता है ॥1721
असारवृक्षभूयिष्ठे पाषाणतृणकुत्सिते।
देवतायतनाक्रान्ते निविष्टो वधमाप्नुयात् ॥173॥ रेड़ी के अधिक वृक्ष वाले स्थान में अथवा पाषाण-पत्थर और तिनके वाले स्थान में, कुत्सित--ऊंची-नीची खराब भूमि में, अथवा देवमन्दिर की भूमि में यदि सैन्य शिविर हो तो वध प्राप्त होता है ।173॥
अमनोजैः फलैः पुष्पैः पापपक्षिसमन्विते।
अधोमार्गे निविष्टश्च युद्धमिच्छति पार्थिव: ॥17॥ कुरूप फल, पुष्प से युक्त तथा पापी-मांसाहारी पक्षियों से युक्त वृक्षों के
1. निविक्षो मु०।