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चतुर्दशोऽध्यायः
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जहाँ मेघ मद्य, रुधिर, हड्डी, अग्नि चिनगारियाँ और चर्बी की वर्षा करते हैं वहाँ चार प्रकार का भय होता है ||13||
सरीसृपा जलचराः पक्षिणो द्विपदास्तथा । 'वर्षमाणा जलंधरात् तदाख्यान्ति महाभयम् ॥14॥
जहाँ मेघों से सरीसृप - रीढ वाले सर्पादि जन्तु, जलचर – मेढक, मछली आदि एवं द्विपद पक्षियों की वर्षा हो, वहाँ घोर भय की सूचना समझनी चाहिए ॥14॥
निरिन्धनो यदा चाग्निरीक्ष्यते सततं पुरे ।
स राजा नश्यते देशाच्छण्मासात् परतस्तदा ॥15॥
यदि राजा नगर में निरन्तर बिना ईंधन के अग्नि को प्रज्वलित होते हुए देखे तो वह राजा छः महीने के उपरान्त – उक्त घटना के छः महीने पश्चात् विनाश को प्राप्त हो जाता है ॥15॥
दीप्यन्ते यत्र शस्त्राणि वस्त्राण्यश्वा नरा गजाः । वर्षे च म्रियते राजा देशस्य च महद्भयम् 111611
जहाँ शस्त्र, वस्त्र, अश्व - घोड़ा, मनुष्य और हाथी आदि जलते हुए दिखलाई पड़ें वहाँ इस घटना के पश्चात् एक वर्ष में राजा का मरण हो जाता है और देश के लिए महान् भय होता है ||16||
चैत्य' वृक्षा रसान् यद्वत् प्रस्रवन्ति विपर्ययात् । समस्ता यदि वा व्यस्तास्तदा 'देशे भयं वदेत् ॥17॥
यदि चैत्यवृक्ष - गूलर के वृक्षों से विपर्यय रस टपके अथवा चैत्यालय के समक्ष स्थित वृक्षों में से सभी या पृथक्-पृथक् वृक्ष से विपरीत रस टपके अर्थात् जिस वृक्ष से जिस प्रकार का रस निकलता है, उससे भिन्न प्रकार का रस निकले तो जनपद के लिए भय का आगमन समझना चाहिए ||17||
दधि क्षौद्रं घृतं तोयं दुग्धं रेतविमिश्रितम् । 'प्रस्रवन्ति यदा वृक्षास्तदा व्याधिभयं भवेत् ॥18॥
जब वृक्षों से दही, शहद, घी, जल, दूध और वीर्य मिश्रित रस निकले तब
1. प्रसर्पन्ति मु० । 2. वर्षमाणो जलं हन्याद् भयमाख्याति दारुणम् मु० । 3. दीप्यते C मु० । 4. वृक्षरसा मु० । 5. प्रभवन्ति मु० । 6. विन्ध्याद्भयागमम् मु० । 7. निस्रवन्ति मु० । 8 विदुः मु० ।