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एकोनविंशतितमोऽध्यायः
343 हो जाती है तथा राजा लोग प्रजा को दण्डित करते हैं, जिससे प्रजा का क्षय होता है ।।21-22॥
धर्मार्थकामा हीयन्ते विलीयन्ते च दस्यवः ।
तोय-धान्यानि शुष्यन्ति रोगमारी बलीयसी॥23॥ उक्त प्रकार के वक्र में धर्म, अर्थ और काम नष्ट हो जाते हैं और चोरों का लोप हो जाता है। जल और धान्य सूख जाते हैं तथा रोग और महामारी बढ़ती है ।।23।।
वकं कृत्वा यदा भौमो विलम्बेन गति प्रति ।
वक्रानुवक्रयो?रं मरणाय समीहते ॥24॥ यदि मंगल वक्र गति को प्राप्त कर विलम्बित गति हो तो यह वक्रानुवक कहलाता है । वक्र और अनुवक का फल मरणप्रद होता है ।।24।।
कृत्तिकादीनि सप्तेह वक्रेणांगाकश्चरेत् ।
हत्वा वा दक्षिणस्तिष्ठेत् तत्र वक्ष्यामि यत् फलम् ॥25॥ यदि मंगल वक्र गति द्वारा कृत्तिकादि सात नक्षत्रों पर गमन करे अथवा घात कर दक्षिण की ओर स्थित रहे तो उसका फल निम्न प्रकार होता है ।25।।
साल्वांश्च सारदण्डांश्च विप्रान क्षत्रांश्च पीडयेत।
मेखलांश्चानयो?रं मरणाय समीहते ॥26॥ उक्त प्रकार का मंगल साल्वदेश, सारदण्ड, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्गों को निस्सन्देह घोर कष्ट देता है ।।26।।
मघादीनि च सप्तैव यदा वक्रेण लोहितः ।
चरेद् विवर्णस्तिष्ठेद् वा तदा विन्द्यान्महद्भयम् ॥27॥ यदि मघादि सात नक्षत्रों में वक्र मंगल विचरण करे अथवा विकृत वर्ण होकर निवास करे तो महान् भय होता है ।।27।।
सौराष्ट्र-सिन्धु-सौवीरान् प्रासोलान् द्राविडांगनाम् । पाञ्चालान् सौरसेनान् वा बालीकान् नकुलान् वधेत् ॥28॥ मेखलान् वाऽप्यवन्त्यांश्च पार्वतांश्च नपैः सह। जिघांसति तदा भौमो ब्रह्म-क्षत्रं विरोधयेत् ॥29॥
1. समीहति मु० । 2. तदा प्राप्नोत्य संशयम् मु० ।