________________
एकविंशतितमोऽध्यायः
369 यदि केतु सप्त ऋषियों में से किसी एक को प्रधूमित करे तो ब्राह्मणों को सभी प्रकार का भय निस्सन्देह होता है ।।28।
बृहस्पतिं यदा हन्याद् धूमकेतुरथाचिभिः ।
वेदविद्याविदो वृद्धान् नृपांस्तज्ज्ञांश्च हिंसति ॥29॥ जब धूम्रकेतु अपनी तेजस्वी किरणों द्वारा बृहस्पति का घात करता है, तब वेदविद्या के पारंगत वृद्ध विद्वान और राजाओं का विनाश होता है ।।29।।
एवं शेषान् ग्रहान् केतुर्यदा हन्यात् स्वरश्मिभिः ।
ग्रहयुद्धे यदा प्रोक्तं फलं तत्तु समादिशेत् ॥30॥ इस प्रकार अन्य शेष ग्रहों को अपनी किरणों द्वारा केतु घातित करे तो जो फल गृहयुद्ध का बतलाया गया है, वही कहना चाहिए ।।30।।
नक्षत्रे पूर्वदिग्भागे यदा केतुः प्रदृश्यते।
तदा देशान् दिशामुग्रां भञ्जन्ते पापदा नृपाः ॥31॥ यदि पूर्व दिग्भागवाले नक्षत्र में केत का उदय दिखलायी पड़े तो पापी राजा देश, दिशा और ग्राम का विनाश करता है ।। 3 1।।
बंगानंगान् कलिंगांश्च मगधान् काशनन्दनान् । पट्टचावांश्च कौशाम्बी घेणुसारं सदाहवम् ॥32॥ तोसलिंगान् सुलान् नेद्रान् माक्रन्दामलदांस्तथा । कुनटान् सिथलान् महिषान् माहेन्द्र पूर्वदक्षिणः ॥33॥ वेणान् विदर्भमालांश्च अश्मकांश्चैव छर्वणान् । द्रविडान् वैदिकान् दादू कलांश्च दक्षिणापथे ॥34॥ कोंकणान् दण्डकान् भोजान् गोमान् सूर्यारकाञ्चनम् ।
किष्किन्धान वनवासांश्च लंकां हन्यात् स नैरुतैः ॥35॥ बंग, अंग, कलिंग, मगध, काश, नन्द, पट्ट, कौशाम्बी, घेणुसार, तोस, लिंग, सुल, नेद्र, माक्रन्द, मालद, कुनट, सिथल, महिष, माहेन्द्र, वेण, विदर्भ, माल और दक्षिणापथ के अश्मक, छर्वण, द्रविड़, वैदिक, दाद कल, कोंकण, दंडक, भोज, गोमा, सूर्परि, कंचन, किष्किन्धा, वनवास और लंका इन देशों का विनाश उपर्युक्त प्रकार का केतु करता है ।।32-35।।
1. तदा मु० । 2. सूर्परिकंचनम् मु० ।