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परिशिष्टाध्यायः
अथ वक्ष्यामि केषाञ्चिन्निमित्तानां प्ररूपणम् । कालज्ञानादिभेदेन यदुक्तं पूर्वसूरिभिः ॥1॥
अब मैं कतिपय निमित्तों का स्वरूप कथन करता हूँ । इन निमित्तों का प्रतिपादन पूर्वाचार्यों ने कालज्ञान आदि के निमित्तों द्वारा किया है ||1|| श्रीमद्वीरजिनं नत्वा भारतीञ्च पुलिन्दिनीम् । स्मृत्वा निमित्तानि वक्ष्ये स्वात्मनः कार्यसिद्धये ॥2॥
भगवान महावीर और जिनवाणी को नमस्कार कर तथा निमित्तों की अधिकारिणी पुलिन्दिनी देवी का स्मरण कर स्वात्मा के कार्य की सिद्धि के लिएसमाधिमरण प्राप्ति के लिए मैं निमित्तों का वर्णन करता हूँ ॥ ॥
मोमान्तरिक्षादिभेदा अष्टौ तस्य बुधैर्मताः ।
ते सर्वेऽप्यत्र विज्ञेयाः प्रज्ञावद्भिविशेषतः ॥3॥
भौम, अन्तरिक्ष आदि के भेद से आठ प्रकार के निमित्त विद्वानों ने बतलाये हैं । इन सभी प्रकार के निमित्तों का उपयोग आयुर्ज्ञान के लिए करना चाहिए ॥3॥ व्याधेः कोट्यः पञ्च भवन्त्यष्टाधिकषष्टि लक्षाणि । नवनवति सहस्राणि पञ्चशती चतुरशीत्यधिकाः ॥4॥
रोगों की संख्या पाँच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवे हजार पाँच सौ चौरासी बताई गई है || 4 ||
एतत्संख्यान् महारोगान् पश्यन्नपि न पश्यति । इन्द्रियैर्मोहितो मूढः परलोकपराङ्मुखः ॥5॥
इन्द्रियासक्त, परलोक की चिन्ता से रहित व्यक्ति उपर्युक्त संख्यक रोगों को देखते हुए भी नहीं देखता है अर्थात् विषयासक्त प्राणी संसार के विषयों में इतना रत रहता है जिससे वह उपर्युक्त रोगों की परवाह नहीं करता ॥15॥
नरत्वे दुर्लभे प्राप्ते जिनधर्मे महोन्नते । द्विधा सल्लेखनां कर्तुं कोऽपि भव्यः प्रवर्तते ॥6॥
दुर्लभ मनुष्य पर्याय के प्राप्त होने पर भी आत्मा का उन्नतिकारक जैनधर्म बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है । इस महान धर्म के प्राप्त होने पर भी कोई एकाध भव्य ही दोनों प्रकार की सल्लेखनाएं करने के लिए प्रवृत्त होते हैं ||6||
कृशत्वं नीयते कायः कषायोऽप्यतिसूक्ष्मताम् । उपवासादिभि: पूर्वो ज्ञानध्यानादिभिः परः ॥7॥