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चतुर्विंशतितमोऽध्यायः आर्यस्तमादितं पुष्यो धनिष्ठा पौष्णवी च भूत्।
केतु-सूयौं तु वैशाखौ राहुवरुणसम्भवः ॥41॥ उत्तरा फाल्गुनी, पुनर्वसु, पुष्य, धनिष्ठा, हस्त ये चन्द्रादि ग्रहों के नक्षत्र हैं, केतु और सूर्य के विशाखा नक्षत्र और राहु का शतभिषा नक्षत्र है ।।41॥
शुक्र: सोमश्च स्त्रीसंज्ञौ शेषास्तु पुरुषा ग्रहाः।
नक्षत्राणि विजानीयान्नामभिदेवतैस्तथा ॥421 शुक्र और चन्द्रमा स्त्री संज्ञक हैं, शेष ग्रह पुरुष संज्ञक हैं । नक्षत्रों का लिंग उनके स्वामियों के लिंग के अनुसार अवगत करना चाहिए ।।421
ग्रहयुद्धमिदं सर्वं यः सम्यगवधारयेत् ।
स विजानाति निर्ग्रन्यो लोकस्य तु शुभाशुभम् ॥43॥ जो निर्ग्रन्थ भलीभांति पूर्ण ग्रहयुद्ध को जानता है, वह लोक के शुभाशुभत्व को जानता है ।।431
इति नन्वे भद्रबाहुके निमिते ग्रहयुद्धो नाम चतुविशतितमोऽध्यायः ॥24॥
विवेचन-ग्रहयुद्ध के चार भेद हैं -भेद, उल्लेख, अंशुमर्दन और अपसव्य । भेदयुद्ध में वर्षा का नाश, सुहृद् और कुलीनों में भेद होता है । उल्लेख युद्ध में शस्त्रभय, मन्त्रिविरोध और दुर्भिक्ष होता है । अंशुमर्दन युद्ध में राजाओं में युद्ध, शस्त्र, रोग, भूख से पीड़ा और अवमर्दन होता है तथा अपसव्य युद्ध में राजा गण युद्ध करते हैं । सूर्य दोपहर में आक्रन्द होता है, पूर्वाह्न में पौर ग्रह तथा अपराह्न में यायी ग्रह आक्रन्द संज्ञक होते हैं । बुध, गुरु और शनि ये सदा पौर हैं। चन्द्रमा नित्य आक्रन्द है। केतु, मंगल, राहु और शुक्र यायी हैं । इन ग्रहों के हत होने से आक्रन्द, यायी और पौर क्रमानुसार नाश को प्राप्त होते हैं, जयी होने पर स्ववर्ग को जय प्राप्त होती है। पौरग्रह से पौरग्रह के टकराने पर पुरवासी गण और पौर राजाओं का नाश होता है । इस प्रकार यायी और आक्रन्द ग्रह या पौर और यायी ग्रह परस्पर हत होने पर अपने-अपने अधिकारियों को कष्ट कर देते हैं । जो ग्रह दक्षिण दिशा में रूखा, कम्पायमान, टेढ़ा, क्षुद्र और किसी ग्रह से ढंका हुआ, विकराल, प्रभाहीन और विवर्ण दिखलायी पड़ता है, वह पराजित कहलाता है। इससे विपरीत लक्षण वाला ग्रह जयी कहलाता है । वर्षा काल में सूर्य से आगे मंगल के रहने से अनावृष्टि, शुक्र के आगे रहने से वर्षा, गुरु के आगे रहने से गर्मी और बुध के आगे रहने से वायु चलती है । सूर्य-मंगल, शनि-मंगल और गुरु-मंगल
1. च भूत् मु० । 2. कृत्स्नं मु० ।