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षड्विंशतितमोऽध्यायः
439 अहिर्वा वृश्चिक: कीटो यं स्वप्ने दशते नरम्।
प्राप्नुयात् सोऽर्थवान् य: स यदि भोतो न शोचति ॥53॥ जो व्यक्ति स्वप्न में सांप, बिच्छू या अन्य कीड़ों द्वारा काटे जाने पर भयभीत नहीं होता और शोक नहीं करता हुआ देखता है, वह धन प्राप्त करता है ।।53॥
पुरीषं छिर्दनं यस्तु भक्षयेन च शंकयेत् ।
मूत्रं रेतश्च रक्तं च स शोकात् परिमुच्यते ॥54॥ जो व्यक्ति स्वप्न में बिना घृणा के टट्टी, वमन, मूत्र, वीर्य, रक्त आदि का भक्षण करता हुआ देखता है, वह शोक से छूट जाता है ॥ 54।।
कालेयं चन्दनं रोधं घर्षणे च प्रशस्यते।
अत्र लेपानि पिष्टानि तान्येव धनवृद्धये ॥55॥ जो व्यक्ति स्वप्न में कालागुरु, चन्दन, रोध्र-तगरकी घिसने से सुगन्धि के कारण प्रशंसा करता है तथा उनका लेप करना और पीसना देखता है, उसके धन की वृद्धि होती है 155॥
रक्तानां करवीराणामुत्पलानामुपानयेत् ।
लम्भो वा दर्शने स्वप्ने प्रयाणो वा विधीयते ॥56॥ स्वप्न में रक्तकमल और नीलकमलों का दर्शन, ग्रहण और त्रोटन-तोड़ना देखने से प्रयाण होता है ।। 561
कृष्णं वासो हयं कृष्णं योऽभिरूढः प्रयाति च।
दक्षिण दिशमुद्विग्न: सोऽभिप्रेतो यतस्ततः ॥57॥ जो व्यक्ति स्वप्न में काले वस्त्र धारण कर काले घोड़े पर सवार होकर खिन्न हो दक्षिण दिशा की ओर गमन करता है, वह निश्चय से मृत्यु को प्राप्त होता है ।।571
आसनं शाल्मलों वापि कदलों पालिभद्रिकाम् ।
पुष्पितां य: समारूढ: सवितमधि रोहति ॥58॥ जो व्यक्ति स्वप्न में पुष्पित शाल्मली, केला और देवदारु या नीम के वृक्ष पर बैठना या चढ़ना देखता है, उसे सम्पत्ति प्राप्त होती है ।।58।।
1. छर्दितं मु० । 2. कुत्सते मु. । 3. सोऽपि मु० । 4. -प्रेताय तत्त्वत: मु० । 5. पारिभद्रकम् मु० ।