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चतुर्विंशतितमोऽध्यायः
अथातः संप्रवक्ष्यामि ग्रहयुद्धं यथा तथा । जन्तूनां जायते' येन तूर्णं जय-पराजयौ ॥1॥
अब ग्रहयुद्ध का वर्णन करता हूँ । इसके द्वारा प्राणियों की जय-पराजय का ज्ञान होता है || 1 ||
गुरु: सौरश्च नक्षत्रं बुधार्कश्चैव नागराः । केतुरंगारकः सोमो राहुः शुक्रश्च यायिनः ॥ 2 ॥
गुरु, शनि, बुध और सूर्य नागर संज्ञक एवं केतु, अंगारक, चन्द्र, राहु और शुयायी संज्ञक हैं ॥2॥
श्वेतः पाण्डुश्च पीतश्च कपिलः पद्मलोहितः । वर्णास्तु नागरा ज्ञेया ग्रहयुद्धे विपश्चितः ॥३॥
ग्रहयुद्ध में श्वेत, पाण्डु, पीत, कपिल, लोहितवर्ण मनीषियों द्वारा नागरिक संज्ञक जानना चाहिए || 3 ||
कृष्णों नीलश्च श्यामश्च कपोतो भस्मसन्निभः । वर्णास्तु यायिनो' ज्ञेया ग्रहयुद्धे विपश्चितैः ॥4॥ नील, श्याम,
कृष्ण, या कहे गये हैं ॥4॥
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कपोत और भस्म के समान वर्ण ग्रहयुद्ध में विद्वानों द्वारा
उल्का ताराऽशनिश्चैव विद्युतोऽभ्राणि मारुतः । विमिश्रको गणो ज्ञेयो वधायैव' शुभाशुभे ॥5॥
गृहयुद्ध द्वारा शुभाशुभ अवगत करने में उल्का, तारा, अशनि, धिष्ण्य, विद्य ुत्, अभ्र और मारुत को मिश्रकोणक जानना चाहिए। उल्का, तारा, अशनि, विद्युत्, अभ्र तथा मारुत ये विमिश्र संज्ञक हैं और युद्ध के शुभाशुभ फल में ये कारक होते हैं ॥5॥
नागरस्यापि यः शीघ्रः स यायोत्यभियीधते । मन्दगो यायिनोऽधस्तान्नागरः संयुगे भवेत् ॥6॥
नगर में जो शीघ्रगामी है, उसे यायी कहते हैं, इस प्रकार यायी की अपेक्षा युद्ध में मन्द गति होने से नागर नीच कोटि का कहलाता है ||6||
1. ज्ञायते मु० । 2., जयस्तुणं पराजयः मु० । 3. वाजिनो मु० । 4. स्वर मु० ।
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5. निद्धिष्ण्यं मु० । 6. समस्रिको गणो मु० । 7. वधस्यापि मु० । 8. नातुरेऽस्य पि यः मु० । 9. संयायीत्य ० मु० ।