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भद्रबाहुसंहिता
यदि अष्टमी में चन्द्रमा श्वेतवर्ण, केसररंग या रक्त-पीत दिखलाई पड़े तो ग्रहागम कहना चाहिए ।।2।।
उत्तरतो दिश: श्वेत: पूर्वतो रक्तकेसरः । दक्षिणतोऽथ पीताभ: प्रतीच्यां कृष्णकेसरः ॥22॥ तदा गच्छन् गृहीतोऽपि क्षिप्रं चन्द्र: प्रमुच्यते।
परिवेषो दिन चन्द्र विमर्देत विमुञ्चति ॥23॥ जब दिशा उत्तर से श्वेत, पूर्व ने रक्त-केसर, दक्षिण से पीतवर्ण और पश्चिम से कृष्ण-पीत हो तो राहु के द्वारा चन्द्र का ग्रहण किये जाने पर भी शीघ्र ही छोड़ दिया जाता है। चन्द्रमा में दिन का परिवेष होने पर राहु द्वारा विदित होने पर भी चन्द्रमा शीघ्र ही छोड़ा जाता है ।।22-23।।
द्वितीयायां यदा चन्द्रः श्वेतवर्ण: प्रकाशते।
उद्गच्छमान: सोमी वा तदा गृह्यत राहुणा ॥24॥ यदि चन्द्रमा द्वितीया में श्वेतवर्ण का शोभित हो अथवा उखड़ता हुआ चन्द्रमा हो तो वह राहु के द्वारा ग्रहण किया जाता है ॥24॥
तृतीयायां यदा सोनो विवर्णो दृश्यते यदि ।
पूर्वराने तदा राहुः पौर्णमास्यामुपक्रमेत् ॥25॥ यदि तृतीया में चन्द्रमा विवर्ण-विकृतवर्ण दिखलाई पड़े तो पूर्णमासी की पूर्ण रात्रि में राहु द्वारा ग्रस्त होता है अर्थात् ग्रहण होता है ।।25।।
अष्टभ्यां तु यदा चन्द्रो दृश्यते रुधिरप्रभः ।
पौर्णमास्यां तदा राहुरर्धरात्रमुपक्रमेत् ॥26॥ यदि अष्टमी को चन्द्रमा रुधिर के समान लाल प्रभा का दिखलाई पड़े तो पूर्णमासी की अर्धरात्रि में राहु द्वारा ग्रस्त होता है-ग्राह्य होता है ॥26॥
नवम्यां तु यदा चन्द्र: परिवेश्य तु सुप्रभः।
अर्धरात्रमुपक्रम्य तदा राहुरुपक्रमेत् ॥27॥ यदि नवमी तिथि को सुप्रभा वाले चन्द्रमा का परिवेष दिखलाई पड़े तो पूर्णमासी में अर्धरात्रि के अनन्तर राहु द्वारा चन्द्र ग्रस्त होता है अर्थात् अर्धरात्रि के पश्चात् ग्राह्य होता है ।।27॥
___ 1. परिविष्टो मु०