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भद्रबाहुसंहिता
धन्वन्तरे समुत्पातो वैद्यानां स भयंकरः ।
पाण्मासिकविकारांश्च रोगजान् जनयेन्नृणाम् ॥77॥ धन्वन्तरि की प्रतिमा में उत्पात हो तो वैद्य को अत्यन्त भयंकर उत्पात होता है और छः महीने तक मनुष्यों को विकार और रोग उत्पन्न होते हैं ।।77।।
जामदग्न्ये यदा रामे विकार: कश्चिदीर्यते ।
तापसांश्च तपाढ्यांश्च त्रिपक्षेण जिघांसति ।।78॥ परशुराम या रामचन्द्र की प्रतिमा में विकार दिखलाई पड़े तो तपस्वी और तप आरम्भ करने वालों का तीन पक्ष में विनाश होता है ।।78॥
पञ्चविंशतिरात्रेण कबन्धं यदि दृश्यते।
सन्ध्यायां भयमाख्याति महापुरुषविद्रवम् ॥79॥ यदि सन्ध्या काल में कबन्ध धड़ दिखलाई पड़े तो पच्चीस रात्रियों तक भय रहता है तथा किसी महापुरुष का विद्रवण-विनाश होता है ।।79।।
सुलसायां यदोत्पात: षण्मासं सपिजीविनः ।
पीडयेद् गरुडे यस्य वासुकास्तिकभक्तिषु ॥8॥ यदि सुलसा की मूत्ति में उत्पात दिखलाई पड़े तो सर्पजीवियों—सपहरों आदि के छः महीनों तक पीड़ा होती है और गरुड़ की मूत्ति में उत्पात दिखलाई पड़े तो वासुकी में श्रद्धाभाव और भक्ति करने वालों को कष्ट होता है ।।80।।
भूतेषु यः समुत्पात: 'सदैव परिचारिकाः ।
मासेन पीडयेत्तूर्ण निर्ग्रन्थवचनं यथा ॥81॥ भूतों की मूत्ति में उत्पात दिखलाई पड़े तो परिचारिकाओं-दासियों को सदा पीड़ा होती है और इस उत्पात-दर्शन के एक महीने तक अधिक पीड़ा रहती है, ऐसा निर्ग्रन्थ गुरुओं का वचन है ।।8।।।
अर्हत्सु वरुणे रुद्र ग्रहे शुक्रे नृपे भवेत् । पञ्चालगुरुशुक्रषु पावकेषु पुरोहिते ॥82॥ वातेऽग्नौ वासुभद्रे च विश्वकर्मप्रजापतौ।
सर्वस्य तद् विजानीयात् वक्ष्ये सामान्यजं फलम् ॥83॥ अर्हन्त प्रतिमा, वरुणप्रतिमा, रुद्रप्रतिमा, सूर्यादिग्रहों की प्रतिमाओं, शुक्रप्रतिमा, द्रोणप्रतिमा, इन्द्रप्रतिमा, अग्निपुरोहित, वायु, अग्नि, समुद्र, विश्वकर्मा,
1. सदेवपरिवारिक: मु० ।