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षोडशोऽध्यायः
दुर्ग में निवास करना होता है । मर्यादा नष्ट हो जाती है। वर्षा विषमा - हीनाधिक होती है और रोगादि फैलते हैं ॥17॥
यदा तु त्रीणि चत्वारि नक्षत्राणि शनैश्चरः । मन्दवृष्टि च दुर्भिक्षं शस्त्रं व्याधि च निर्दिशेत् ॥8॥
जब शनि एक वर्ष में तीन या चार नक्षत्र प्रमाण गमन करता है तो मन्दवृष्टि, दुर्भिक्ष, शस्त्रपीड़ा और रोगादि होते हैं ॥8॥৷
चत्वारि वा यदा गच्छेन्नक्षत्राणि महाद्युतिः ।
तदा युगान्तं जानीयात् यान्ति मृत्युमुखं प्रजाः ॥ १ ॥
यदि शनि एक वर्ष में चार नक्षत्रों का अतिक्रमण करे तो युगान्त समझना चाहिए तथा प्रजा मृत्यु के मुख में चली जाती है ॥9॥
उत्तरे पतितो मार्गे यद्येषो नीलतां व्रजेत् । स्निग्धं तदा फलं ज्ञेयं नागरं जायते तदा ॥10॥
रतिप्रधाना मोदन्ति राजानस्तुष्टभूमयः । क्षमां मेघवतीं विन्द्यात् सर्वबीजप्ररोहिणीम् ॥11॥
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उत्तर मार्ग में गमन करता हुआ शनि नीलवर्ण और स्निग्ध हो तो उसका फल अच्छा होता है । सरागी व्यक्ति आमोद-प्रमोद करते हैं, राजा सन्तुष्ट होते हैं और पृथ्वी पर सभी प्रकार के बीजों को उत्पन्न करने वाली वर्षा होती है ।।10-11।।
मध्यमे तु यदा मार्गे कुर्यादस्तमनोदयौ ।
मध्यमं वर्षणं सस्यं सुभिक्षं क्षेममेव च ॥12॥
यदि शनि मध्यम मार्ग में अस्त और उदय को प्राप्त हो तो मध्यम वर्षा, सुभिक्ष, धान्य की उत्पत्ति एवं कल्याण होता है ॥12॥
दक्षिणे तु यदा मार्गे यदि स नीलतां व्रजेत् । नागरा यायिनश्चापि पीड्यन्ते च भिटागणा: ॥13॥
यदि दक्षिण मार्ग में गमन करता हुआ शनि नीलवर्ण को प्राप्त हो तो नागरिक और यायी अर्थात् आक्रमण करने वाले — दोनों ही योद्धागण पीड़ा को प्राप्त होते हैं ।।13॥
1. भटव्रजाः मु० ।