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षोडशोऽध्यायः
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यदा वा युगपद् युक्त: सौरिमध्येन नागरैः। तदा भेदं विजानीयान्नागराणां परस्परम् ॥20॥ महात्मानश्च ये सन्तो महायोगापरिग्रहाः ।
उपसर्ग च गच्छन्ति धन-धान्यं च वध्यते ॥21॥ जब चन्द्रमा और शनि दोनों एक साथ हों तो नागरिकों में परस्पर मतभेद होता है। जो महात्मा, मुनि और साधु अपरिग्रही विचरण करते हैं, वे उपसर्ग को प्राप्त होते हैं तथा धन-धान्य की हानि होती है ।।20-21॥
देशा महान्तो योधाश्च तथा नगरवासिनः।
ते सर्वत्रोपतप्यन्ते बेधे सौरस्य तादृशे ॥22॥ शनि के उक्त प्रकार के वेध होने पर देश, बड़े-बड़े योधा तथा नगरनिवासी सर्वत्र सन्तप्त होते हैं ।।221
ब्राह्मी सौम्या प्रतीची च वायव्या च दिशो यदा।
वाहिनी यो जयेत्तासु नृपो दैवहतस्तदा ॥23॥ पूर्व, उत्तर, पश्चिम और वायव्य दिशा की सेना को जो नृप जीतता है, वह भी भाग्य द्वारा आहत होता है ॥23॥
कृत्तिकासु च यद्याकिविशाखासु बृहस्पतिः।
समस्तं दारुणं विन्द्यात् मेघश्चात्र प्रवर्षति ॥24॥ जब कृत्तिका नक्षत्र पर शनि और विशाखा पर बृहस्पति रहता है तो चारों ओर भीषण भय होता है और वहां वर्षा होती है ।।24।
कीटा: पतंगाः शलभा वृश्चिका मूषका शुकाः ।
अग्निश्चौरा बलीयांसंस्तस्मिन् वर्षे न संशय: ॥25॥ इस प्रकार की स्थिति वाले वर्ष में कीट, पतंग, शलभ, बिच्छू, चूहे, अग्नि, शुक्र और चोर निस्सन्देह बलवान होते हैं अर्थात् इनका प्रकोप बढ़ता है ॥25॥
श्वेते सुभिक्षं जानीयात् पाण्डु-लोहितके भयम् ।
पीतो जनयते व्याधि शस्त्रकोपञ्च दारुणम् ॥26॥ शनि के श्वेत रंग का होने से सुभिक्ष, पाण्डु और लोहित रंग का होने पर भय एवं पीतवर्ण होने पर व्याधि और भयंकर शस्त्रकोप होता है ॥26॥
1. अन्योऽन्य मिदं जानीयात् मु० । 2. समन्तात् म०। 3. देव मु०। 4. -स्तथा मु० ।