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सप्तदशोऽध्यायः
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होता है ॥35॥
शस्त्रघातस्तथाऽऽीयामाश्लेषायां विषादभयम् ।
मन्दहस्तपुनर्वसोस्तोयं चौराश्च दारुणा: ।।36॥ आर्द्रा के घातित होने पर बृहस्पति शस्त्रघात, आश्लेषा में स्थित होने पर विषादभय तथा हस्त और पुनर्वसु में घातित होने पर मन्द वर्षा और भीषण चौर्यभय उत्पन्न करता है ।।36।।
वायव्ये वायवो दृष्टा रोगदं वाजिनां भयम् ।
अनुराधानुघाते च स्त्रीसिद्धिश्च प्रहीयते ।37॥ स्वाति नक्षत्र में स्थित बृहस्पति के घातित होने पर वायव्य दिशा में रोग उत्पन्न करता है, घोड़ों को अनेक प्रकार का भय होता है, अनुराधा नक्षत्र के घातित होने पर स्त्री-प्रेम में कमी आती है ।।37॥
तथा मूलाभिघातेन दुष्यन्ते मण्डलानि च।
वायव्यस्याभिघातेन पीड्यन्ते धनिनो नराः ॥38॥ मूल नक्षत्र के घातित होने पर मण्डल-प्रदेशों को कष्ट होता है, दोष लगता है और विशाखा नक्षत्र के अभिघातित होने पर धनिक व्यक्तियों को पीड़ा होती है ॥38॥
वारुणे जलजं तोयं फलं पुष्पं च शुष्यति ।
अकारान्नाविकांस्तोयं पीडयेद्रवती हता॥39॥ शतभिषा के अभिघातित होने पर कमल, जल, फल, पुष्प इत्यादि सूख जाते हैं। उत्तरा भाद्रपद के अभिघातित होने पर नाविक और जल-जन्तुओं को पीड़ा तथा जल का अभाव और रेवती नक्षत्र के अभिघातित होने पर पीड़ा होती है ।।39॥
वामं करोति नक्षत्रं यस्य दीप्तो बृहस्पतिः। लब्ध्वाऽपि सोऽथ विपुलं न भुञ्जीत कदाचन ॥40॥ हिनस्ति बीजं तोयञ्च मृत्युदा भरणी यथा।
अपि हस्तगतं द्रव्य सर्वथैव विनश्यति ॥41॥ दीप्त बृहस्पति जिस व्यक्ति के बायीं ओर नक्षत्र को अभिघातित करता है; वह व्यक्ति विपुल सम्पत्ति को प्राप्त करके भी उसका भोग नहीं कर सकता है,
1. मैत्री-मु० । 2. यह श्लोक मुद्रित प्रति में नहीं है।